सोचना पड़े। यहीं कृष्ण का भेद है।
अगर तुम महावीर में आकर्षित होते हो, तो तुम्हें। संसार के समस्त
आकर्षणों से मुक्त होना पड़ेगा। अगर महावीर की तरफ जाते हो, तो संसार के
विपरीत जाना पड़ेगा। वह महावीर का मार्ग है। लेकिन कृष्ण के संबंध में मामला
जरा नाजुक है और गहरा है।
कृष्ण कहते हैं, अगर तुम्हें मेरी तरफ आना है, तो तुम्हें संसार के
आकर्षण में ही मुझे खोजना पड़ेगा; क्योंकि मैं वहा भी मौजूद हूं। वहां से
भागने की कोई जरूरत नहीं है।
इसे ऐसा समझो। तुम्हें भोजन में रस है। अगर तुम महावीर की सुनते हो, तो
अस्वाद व्रत होगा। तब तुम्हें स्वाद छोड़ना है। भोजन ऐसे कर लेना है कि काम
है, जरूरत है, स्वाद नहीं लेना है। भोजन को ऐसे शरीर में डाल देना है कि
काम शरीर का चल जाए, लेकिन उसमें कोई रस नहीं लेना है। स्वाद छोडना है,
भोजन जारी रखना है। भोजन बेस्वाद हो जाए, अस्वाद हो जाए, स्वादहीन हो जाए,
स्वादातीत हो जाए। स्वाद न रह जाए। बस, शरीर का धर्म है, पूरा कर देना है।
तो भोजन ले लेना है।
अगर तुम कृष्ण की बात समझो, तो कृष्ण कहते हैं कि तुम इतना गहरा स्वाद
लो कि भोजन के स्वाद में ही तुम्हें ब्रह्म का स्वाद आने लगे, अन्न ब्रह्म
हो जाए। स्वाद की गहराई में उतरो।
महावीर कहते हैं, अस्वाद, कृष्ण कहते हैं, महास्वाद।
ये संसार में खिले हुए फूल हैं। एक तो उपाय है कि इनकी तरफ पीठ कर लो,
अपने भीतर प्रविष्ट हो जाओ। एक उपाय है, इन फूलों के सौंदर्य में इतने गहरे
उतर जाओ कि फूल की देह तो भूल जाए, सिर्फ सौंदर्य का ही स्पंदन रह जाए, तो
भी तुम पहुंच जाओगे।
तुम जहां हो अभी, वहां से दो रास्ते जाते हैं। एक रास्ता है, संसार की तरफ पीठ कर लो, आंख बंद कर लो, अपने में डूब जाओ।
इसलिए महावीर परमात्मा की बात नहीं करते, सिर्फ आत्मा की बात करते हैं। आंख बंद करो, अपने में डूब जाओ।
कृष्ण परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, यह सब चारों तरफ जो फैला
है, वही है। जरा गौर से देखो! तुम्हें संसार दिखा है, क्योंकि तुमने गौर से
नहीं देखा है। संसार दिखने का अर्थ है, है तो परमात्मा ही, तुमने ठीक से
नहीं देखा है। देखने में थोड़ी जरा भूल हो गई है, इसलिए संसार दिखाई पड़ रहा
है।
संसार परमात्मा ही है, गलत ढंग से देखा गया। जरा आंख को सम्हलो; जरा
चित्त को साफ करो, जरा और गौर से देखो और तन्मय होकर देखो; और लीन हो जाओ।
और तुम पाओगे कि संसार तो मिट गया, परमात्मा मौजूद है। संसार तो खो गया,
परमात्मा प्रकट हो गया।
कृष्ण के अर्थों में अगर तुम आकर्षित होते हो परमात्मा की तरफ, तो जीवन
के आकर्षणों से हटने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन के आकर्षण को भी परमात्मा
को ही समर्पित कर देने की जरूरत है। इसलिए तो अर्जुन को वे युद्ध से भागने
नहीं दे रहे हैं। अगर। अर्जुन ने महावीर से पूछा होता, महावीर कहते कि
बिलकुल ठीक अर्जुन, जल्दी तुझे समझ आ गई। छोड़! कुछ सार नहीं है युद्ध में।
हाथ सिर्फ रक्त से रंगे रह जाएंगे। सदा के लिए पाप हो जाएगा। और जो मिलेगा,
वह कूड़ाकरकट है। राज्य, महल, धनसंपत्ति, क्या है उसका मूल्य!
वे ठीक कहते हैं। वह भी एक मार्ग है।
और कृष्ण भी कहते हैं कि भागने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ। तू अज्ञान को
छोड़ दे। ज्ञान से देखा गया संसार ही परमात्मा है। अज्ञान से देखा गया
परमात्मा संसार जैसा मालूम पड़ता है।
कृष्ण की कीमिया ज्यादा गहरी है। मुझसे भी कृष्ण का ज्यादा तालमेल है।
महावीर की बात ठीक है, उससे भी लोग पहुंच जाते हैं। लेकिन वह ऐसे ही है
कि तुम किसी तीर्थयात्रा पर निकले हो। एक रास्ता मरुस्थल से होकर जाता है।
वह भी पहुंचता है। और एक रास्ता वनप्रातों से होकर गुजरता है, जहां झरने
हैं, झरनों का कल कल नाद है, जहां फूल खिलते हैं अनूठे, जहां हवाएं सुगंधों
से भरी हैं, जहां पक्षी गीत गाते हैं अलौकिक के, जहां वृक्ष सदा हरे हैं,
जहां बहुत गहरी छाया है, जहां जल है, जहां रस धाराएं बहती हैं।
तो दो रास्ते हैं, एक मरुस्थल से होकर जाता है, एक सुंदर वनप्रातों से होकर जाता है।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मरुस्थल में कोई सौंदर्य नहीं है।
मरुस्थल का भी एक सौंदर्य है। तुम्हारी परख की बात है। कुछ लोग तो ऐसे हैं,
जो मरुस्थल के सौंदर्य के दीवाने हैं।
योरोप का एक बहुत बड़ा विचारक, लारेंस, पूरी जिंदगी अरब में रहा। उसने
अपने संस्मरणों में लिखा है कि जैसा सौंदर्य अरब के रेगिस्तानों में है,
वैसा संसार में कहीं भी नहीं है।
जब मैंने इसे पढा, तो मैं चौंका। रेगिस्तान में सौंदर्य? फिर मैंने उसकी
किताब बड़े गौर से पढ़ी कि इस आदमी का भी एक अनूठा अनुभव है। और उसकी बात
में भी थोड़ी सचाई है।
वह कहता है कि जैसा सन्नाटा मरुस्थल में होता है, वैसा सन्नाटा कहीं भी
नहीं हो सकता। और जैसा विस्तीर्ण विराट मरुस्थल में दिखता है, वैसा कहीं
नहीं। वृक्ष हैं, पहाड़ियां हैं, बाधा डाल देती हैं। मरुस्थल असीम है, कोई
कूल किनारा नहीं दिखता। जहां तक देखते चले जाओ, वही है। आकाश जैसा है। और
मरुस्थल में एक तरह का सौंदर्य है। और एक तरह की पवित्रता, एक तरह की
शुचिता है। रेत का कण कण स्वच्छ है।
रात जैसी मरुस्थल की सुंदर होती है, कहीं भी नहीं होती। दिनभर का
उत्तप्त जगत और रात सब शीतल हो जाता है। और मरुस्थल में तारे जैसे साफ
दिखाई पडते हैं, कहीं नहीं दिखाई पड़ते। क्योंकि सभी जगह थोड़ी न थोड़ी भाप
हवा में होती है। इसलिए भाप की परतें हवा में होती हैं, तारे साफ नहीं
दिखाई पड़ते, थोडे धुंधले होते हैं। मरुस्थल में तो कोई भाप होती नहीं, हवा
बिलकुल शुद्ध होती है, सूखी होती है, उसमें कोई जलकण नहीं होते, इसलिए तारे
इतने निकट मालूम होते हैं, और इतने माफ मालूम होते हैं कि हाथ बढ़ाया और छू
लेंगे।
निश्चित ही, जब मैंने लारेंस को पढ़ा, तो मुझे लगा कि उसकी बात में भी
सचाइयां हैं। मरुस्थल का भी अपना आकर्षण है। तब बात इतनी है कि तुम्हें जो
रुचिकर लगे।
महावीर का मार्ग मरुस्थल का मार्ग है। वे सूखे रेगिस्तान से गुजरते हैं।
जरूर उनको सौंदर्य मिला होगा। अन्यथा वे क्यों गुजरते! कोई कारण न था।
उन्होंने उस सूखी भूमि में भी कुछ देखा होगा, लारेंस की तरह, कोई सन्नाटा,
कोई स्वच्छता, कोई ताजगी उन्हें वहा मिली होगी। विराट का उन्हें अनुभव हुआ
होगा।
पर वन प्रांतों से गुजरने का भी अपना मजा है।
कृष्ण का रस बिना छोड़े, संसार से बिना भागे, संसार से ही गुजरकर परमात्मा तक पहुंचने का रस है।
दोनों पहुंच जाते हैं। इसलिए तुम्हें जो रुचिकर लगे, उसे चुन लेना। और
इस रुचि की बात को जन्म पर मत छोड़ना। क्योंकि जन्म से रुचि का कोई संबंध
नहीं है।
अब मैं ऐसे जैनों को जानता हूं, जिनके लिए कृष्ण बड़े काम के हो सकते
हैं। लेकिन वे उनका उपयोग न करेंगे। वे कहते हैं, यह कुंजी हमारे काम की
नहीं है। इस घर में हम पैदा ही नहीं हुए हैं। हम तो महावीर के मार्ग से
जाएंगे। और उनकी पूरी जीवनदशा महावीर से मेल नहीं खाती।
ऐसे हिंदुओं को मैं जानता हूं जो कृष्ण की भक्तिभाव किए चले जाते है।
लेकिन भक्ति भाव का उनसे कोई तालमेल नहीं है। उनके लिए मरुस्थल जमता।
उनके होंठों पर भक्ति के गीत शोभा नहीं देते। उनके हृदय का उससे कोई साथ
नहीं है। वे संकोच से भरे हुए आरती करते हैं। उनको लगता है, यह क्या मूढ़ता
कर रहे हैं! लेकिन अब जिस घर में पैदा हुए हैं, पूरा करना पड़ता है। वे
डरे डरे हैं।
ध्यान रखना, जन्म से तुम्हारे जीवन की कोई व्यवस्था नहीं बनती। तुम अपनी
समझ से खोजने की कोशिश करना, किससे तुम्हारा तालमेल है? और साहस रखना।
जिसके साथ तालमेल हो, उसके साथ जाने की हिम्मत रखना। तो शायद तुम पहुंच
जाओगे। अन्यथा तुम बहुत भटकोगे।
गीता दर्शन
ओशो
No comments:
Post a Comment