हिंसा से शांति नहीं आ सकती, यह कृष्ण भी जानते हैं और मोहम्मद
भी। और आई भी नहीं। महाभारत के बाद कौन सी शांति आई भारत में? युद्ध तो
हुआ; शांति कौन सी आई? मुल्क अशांत रहा। हिंसा मिट नहीं गई; हिंसा जारी
रही। मोहम्मद के युद्धों के बाद कौन सी शांति आ गई है मुसलमानों में?
वस्तुतः वे और अशांत हो गए। मोहम्मद की तलवार उनके लिए बहाना बन गई तलवार
चलाने का। मोहम्मद का युद्ध उनको हर युद्ध को करने के लिए तर्क बन गया।
मुसलमान अशांत रहे हैं, युद्धखोर रहे हैं। कृष्ण भी हार गए, मोहम्मद भी हार
गए; हिंसा से अहिंसा आ ही नहीं सकती।
लेकिन तब तुम पूछोगे, फिर कृष्ण को, मोहम्मद को क्या यह दिखाई नहीं पड़ा?
यह भलीभांति दिखाई पड़ा; लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय न था। यह मजबूरी थी। यह था कम से कम बुराई को चुनना। इसे तुम थोड़ा समझ लेना।
सवाल यह नहीं था कृष्ण के सामने कि युद्ध से अहिंसा आएगी कि नहीं; वह तो
उन्हें भी साफ है कि युद्ध से कहीं अहिंसा आती है! हिंसा से कैसे अहिंसा
का जन्म हो सकता है? और घृणा से कैसे प्रेम पैदा होगा? और शत्रु बनाने से
कैसे कोई मित्र हो जाएगा? पागलपन है। मारने से कहीं कोई जीता है? आग लगाने
से कहीं वृक्षों में फूल खिलेंगे? और कांटे बोने से क्या तुम सोचते हो कि
फूलों की शय्या बन जाएगी? यह तो कृष्ण को भी पता है। कोई कृष्ण नासमझ नहीं
हैं। कृष्ण से समझदार आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्ण को भलीभांति पता है कि
युद्ध से कोई शांति नहीं होगी; हिंसा से कोई अहिंसा नहीं आएगी।
लेकिन यह सवाल ही नहीं है कृष्ण के सामने; सवाल ही दूसरा था। सवाल था दो
तरह की हिंसाओं के बीच चुनने का; अहिंसा और हिंसा के बीच चुनाव का सवाल ही
नहीं था। युद्ध खड़ा था सामने। या तो कौरवों की हिंसा जीतेगी या पांडवों की
हिंसा जीतेगी, चुनाव था दो हिंसाओं के बीच में। अगर कृष्ण के सामने अहिंसा
और हिंसा का चुनाव होता तो स्वभावतः वे अहिंसा चुनते। लेकिन वह चुनाव न
था। चुनाव था: ये दो तरह की हिंसाएं आमने-सामने खड़ी थीं युद्ध में; इसमें
जो सबसे कम बुरा था, उसे चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग न था। पांडव कौरवों
से कम बुरे थे, बस इतनी ही बात है। और अगर पांडव हारते हैं तो कौरव
जीतेंगे, वह बहुत भयंकर हिंसा जीतेगी। अगर कौरव जीतते हैं तो हिंसा पूरी
तरह जीतती है। अगर पांडव जीतते हैं तो हिंसा आधी तरह जीतती है।
यही तो पूरे गीता का राज है। वह राज यह है कि दुर्योधन ने तो नहीं पूछा
कि मैं युद्ध करूं या न करूं; दुर्योधन के मन में तो सवाल भी न उठा।
दुर्योधन के सामने सवाल तो वही था जो अर्जुन के सामने था। मित्र-परिजन खड़े
थे, अपने ही सगे-संबंधी खड़े थे–उस तरफ भी, इस तरफ भी। परिवार का ही
गृहयुद्ध था। सब बंट गए थे। इस तरफ भाई खड़ा था, दूसरा भाई उस तरफ खड़ा था।
कृष्ण एक तरफ खड़े थे, उनकी युद्ध की सेना दूसरी तरफ खड़ी थी। अपनी ही सेना
से लड़ रहे थे। गृहयुद्ध था। ठीक-ठीक गृहयुद्ध था। लेकिन दुर्योधन को सवाल
भी न उठा। अर्जुन को सवाल उठा। इसलिए अर्जुन कम हिंसक है इसलिए सवाल उठा।
और अर्जुन ने पूछा कि इससे तो अच्छा है मैं छोड़ कर चला जाऊं। अपनों को
ही मार कर क्या पा लूंगा? और अगर इन सबको मार कर राज्य मिल भी गया तो उस
राज्य का भी क्या मूल्य है? इतने खून के बाद इस खून से सने राज्य को पाकर
मेरा मन तो सदा पीड़ा ही पाता रहेगा। वह कोई सुख की अवस्था न होगी; वह तो एक
दुखस्वप्न हो जाएगा। ये सब अपने ही हाथ से काटे गए लोगों के चेहरे मुझे
याद आते रहेंगे। न मैं ठीक से भोजन कर सकूंगा, न रात सो सकूंगा। इससे तो
बेहतर है मैं भाग जाऊं, युद्ध से पलायन कर जाऊं। सिर्फ जीतने की आकांक्षा
से इतना बड़ा रक्तपात मुझसे नहीं होता। अर्जुन ने कहा कि मेरे गात शिथिल हुए
जाते हैं; मेरा गांडीव मेरे हाथ से छूटा जाता है; मेरे हाथ कंप रहे हैं।
इससे खबर दी अर्जुन ने कि यह आदमी कम हिंसक है।
दुर्योधन को तो कोई सवाल ही न उठा। वह असंदिग्ध रूप से हिंसक है। अर्जुन
की हिंसा में कम से कम विचार है, बोध है, होश है। यह छोड़ने को राजी है। यह
धन को, राज्य को त्याग देना चाहता है। इसके भीतर एक समझ है। इसीलिए तो
कृष्ण ने इतनी मेहनत करके इसे राजी किया कि तू लड़!
अब सारा गणित इतना है कि कृष्ण को दिखाई पड़ा साफ-साफ कि अर्जुन का लड़ना,
अर्जुन का जीतना, कम बुरे लोगों के हाथ में सत्ता जाएगी। तो जहां दो
बुराइयों में चुनना हो वहां कम बुराई को ही चुनना उचित है।
इस संसार में भलाई और बुराई के बीच तो चुनाव बहुत मुश्किल से खड़ा होता
है; यहां तो चुनाव हमेशा कम बुराई और ज्यादा बुराई के बीच खड़ा होता है। यह
तो ऐसे ही है कि जैसे तुम डाक्टर के पास जाओ और डाक्टर तुमसे कहे कि यह पैर
इतना खराब है कि इसे काट डालो; अगर न काटोगे तो दोनों पैर खराब हो जाएंगे।
क्या करोगे? डाक्टर के पास जाते हो, वह कहता है, यह एक दांत सड़ गया है,
इसे अलग कर दो; अगर इसे अलग न किया तो बाकी दांत भी सड़ जाएंगे। क्या करोगे?
कोई दांत निकालना सुखद तो नहीं है। एक पैर काटना कोई सुखद तो नहीं है। और
डाक्टर कोई पैर काटने का हिमायती तो नहीं है कि वह कहता है सब लोग एक पैर
काट डालो। न; वह यह कह रहा है कि इस स्थिति में अगर पैर न काटा गया तो
दूसरा पैर भी काटना पड़ेगा। तो विकल्प दो हैं, या तो दोनों पैर कटेंगे या एक
कटेगा। तो बेहतर है एक काट डालो। अब कोई विकल्प और है नहीं। विकल्प अगर यह
हो कि दोनों पैर बचते हों तो डाक्टर भी नहीं कहेगा कि एक पैर काट डालो; वह
कहेगा, कोई सवाल ही नहीं है। अगर सब दांत बचते हों तो डाक्टर भी कहेगा कि
इलाज कर लो, दांत बचा लो।
कृष्ण ने सब तरह की कोशिश कर ली थी कि युद्ध टल जाए। सब तरह की कोशिश
पांडवों ने कर ली थी कि युद्ध टल जाए। लेकिन वह संभव नहीं था। दूसरी तरफ
बड़ा युद्धखोर आदमी था। हिंसा उसकी आंखों में थी। वह बिलकुल विक्षिप्त था।
ऐसी अवस्था में यही एक उपाय था कि या तो संसार को दुर्योधन के हाथों में
छोड़ दिया जाए; ये पांचों पांडव संन्यासी हो जाएं, हिमालय चले जाएं–जिसकी
उनकी तैयारी थी; वे छोड़ देना चाहते थे। और इसलिए एक बड़ी बेबूझ घटना घटती है
कि कृष्ण को युद्ध के लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है। क्योंकि कृष्ण को
लगता है कि अगर युद्ध ही होना है तो भले आदमी जीतें, जिनका युद्ध पर भरोसा
नहीं है। अगर युद्ध ही होना है तो वे लोग जीतें जो छोड़ने को तैयार थे। अगर
युद्ध ही होना है तो अर्जुन जीते, दुर्योधन न जीते।
दो बुराइयों में कम बुराई को चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
वही अवस्था मोहम्मद की भी थी। वे जिनसे भी लड़े हैं, उसका कारण कुल इतना
था कि जिन लोगों के बीच वे थे, वे लड़ाई के अतिरिक्त दूसरी कोई भाषा ही नहीं
समझते थे। कोई उपाय ही न था। जब तुम संसार में खड़े होते हो तो संसार में
जो विकल्प होते हैं उन्हीं में से तो चुनोगे। मोहम्मद जिन खूंखार लोगों के
बीच में थे, वे सिर्फ तलवार की भाषा समझते थे। और अगर मोहम्मद लड़ने को राजी
नहीं हैं तो जितने लोग मोहम्मद के पास ध्यान में, प्रार्थना में, धर्म में
उत्सुक हुए थे, वे सब काट डाले जाएंगे। तो उपाय एक ही था–या तो धार्मिक
लोग कट जाएं, अधार्मिक लोग जीत जाएं। या फिर धार्मिक लोग लड़ें।
यद्यपि लड़ने से कोई शांति नहीं आती, न कहीं हिंसा से अहिंसा आती है।
लेकिन अच्छे आदमी की हिंसा से थोड़ी अच्छी हिंसा आती है, बुरे आदमी की हिंसा
से बुरी हिंसा आती है। और अगर बुरी हिंसा, अच्छी हिंसा में चुनना हो तो
अच्छी हिंसा ही बेहतर है।
इसे खयाल में रखोगे तो दुविधा न पड़ेगी। कोई कृष्ण में और महावीर में भेद
नहीं है; परिस्थिति में भेद है। और इसलिए कृष्ण और महावीर को मानने वाले
व्यर्थ का विवाद करते रहे हैं। परिस्थिति दोनों की भिन्न है। महावीर कह रहे
हैं कि मांस मत खाओ, क्योंकि मांस खाना या न खाना दो विकल्प हैं। महावीर
कह रहे हैं, देख कर चलो, क्योंकि चींटी व्यर्थ दबा कर मर जाए पैर के नीचे;
बचाई जा सकती है तो क्यों मारते हो?
महावीर ने जो परिस्थिति चुनी है मनुष्य के लिए वह साधक की है। वे
संन्यासी से बात कर रहे हैं। अगर महावीर खड़े होते कृष्ण की जगह तो जो सलाह
कृष्ण ने दी है, मैं कहता हूं कि वही सलाह महावीर ने दी होती। क्योंकि कोई
और उपाय न था; वह परिस्थिति साफ थी। लेकिन महावीर वहां नहीं थे; महावीर की
परिस्थिति और थी। महावीर किसी युद्ध के मैदान पर नहीं खड़े थे। महावीर
संन्यस्त हैं, उन्होंने संसार छोड़ दिया है। वे जो सलाह दे रहे हैं वह
संन्यासी को दे रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं कि तू अहिंसा की तरफ बढ़ और
हिंसा को छोड़, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही पैदा होती है। लेकिन महावीर क्या
करते कृष्ण की स्थिति में? या तो वे कह देते मैं सलाह नहीं देता, जो कि
उचित न होता; और या वे वही सलाह देते जो कृष्ण ने दी है।
कई बार मैंने इस बात को सोचा है कि अगर परिस्थिति वही हो और ज्ञानी बदल
दिया जाए तो क्या ज्ञानी दूसरी सलाह दे सकेगा? और मैंने बहुत सोच कर यही
पाया है कि असंभव है! ज्ञानी वही सलाह देगा, क्योंकि कोई उपाय ही नहीं है।
अगर महावीर होते अरब में और हिंदुस्तान में नहीं–क्योंकि हिंदुस्तान की हवा
और, हिंदुस्तान की बात और। हजारों-हजारों साल की अहिंसा का शिक्षण है इस
मुल्क के पास। ठीक वेदों से लेकर, और महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं, उनके
पहले तेईस महान विराट पुरुषों ने अहिंसा के फूल बिछाए हैं; एक धारा है;
पीछे से आता एक महान प्रवाह है! उस प्रवाह के कारण पूरे मुल्क में अहिंसा
की भाषा को समझने की क्षमता है। तो महावीर यह बात कह सके। मोहम्मद के पीछे
कोई प्रवाह नहीं है। मोहम्मद पहले हैं; महावीर आखिरी हैं। एक बड़ी धारा के
महावीर आखिरी पुरुष हैं। और मोहम्मद एक बड़ी धारा के पहले पुरुष हैं। बड़ा
फर्क है। फिर अरब, जहां सिवाय जंगली, खूंखार लोगों के और कोई भी नहीं;
जिनके पास न कोई संस्कृति है, न कोई सभ्यता है; जिनके पास कोई अतीत नहीं
है; जिनकी अतीत में कोई जड़ें नहीं हैं; जिनके पीछे कोई इतिहास नहीं है; जो
बिलकुल असंस्कृत हैं। इन आदमियों से अगर तुम अहिंसा की बात करते तो तुम ही
मूढ़ सिद्ध होते। क्योंकि इनसे बात ही नहीं की जा सकती; अहिंसा का कोई अर्थ
ही नहीं होता। हिंसा एकमात्र बात थी जिसे वे समझ सकते थे।
तो मोहम्मद ने उन्हें समझाने की चेष्टा स्वभावतः उन्हीं की भाषा में की,
और कोई उपाय नहीं था। तो मोहम्मद ने भी तलवार उठाई। लेकिन तलवार पर
मोहम्मद ने लिख रखा था: शांति मेरा संदेश है। यह तलवार की भाषा से शांति
समझाने का उपाय है। कोई और रास्ता नहीं था। तो तलवार पर लिखना पड़ा है
बेचारे मोहम्मद को अपना संदेश कि शांति मेरा संदेश है। इसलाम शब्द का अर्थ
होता है शांति। शांति भी समझानी पड़ी तो तलवार से। क्योंकि जो समझने वाले थे
उन पर सब निर्भर करता है।
आखिर जब मैं तुम्हें समझाता हूं तो तुम्हारी ही भाषा में बोलना पड़ेगा,
और तो कोई उपाय नहीं है। या मैं अपनी भाषा बोलता रहूं, जिस भाषा को तुम
समझते ही नहीं, तो मैं पागल हूं। महावीर अगर मोहम्मद की जगह होते, वही
तलवार महावीर के हाथ में होती और वही संदेश होता कि शांति मेरा संदेश है।
और मोहम्मद अगर भारत में पैदा होते महावीर के समय में, तो वे चौबीसवें
तीर्थंकर हो जाते। कोई बचने का उपाय न था।
लेकिन परिस्थिति बदल जाती है रोज। और परिस्थिति तय करती है कि क्या कहा
जाए, क्या न कहा जाए; कहां तक लोग बढ़ सकेंगे, कहां तक लोग जा सकेंगे; कितने
दूर तक लोगों की चेतना को खींचा जा सकता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि जो हम
कहें, वह लोगों को असंभव मालूम पड़े, इसलिए वे उसकी बात ही छोड़ दें।
ऐसा समझो कि अगर मैं तुम्हें कोई बात बताऊं, वह इतनी दूर मालूम पड़े कि
जैसे एवरेस्ट का शिखर हो, तो तुम बात ही छोड़ दो, तुम कहो कि यह अपने से
होने वाला नहीं है; अपनी जिंदगी ठीक, और अपन ठीक। लेकिन मैं तुम्हें एक
छोटी सी पहाड़ी बताऊं जिसको तुम चढ़ सकते हो, फिर तुम्हें और बड़ी पहाड़ी
बताऊं; क्योंकि छोटी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद तुम्हारा साहस बढ़ जाएगा, स्वयं
में आस्था बढ़ जाएगी; फिर और बड़ी पहाड़ी बताऊं। एक दिन जब तुम्हें रस पकड़ जाए
पहाड़ों को चढ़ने का, तब मुझे बताना भी न पड़ेगा, तुम खुद ही पूछने लगोगे कि
अब आखिरी बता दें! बार-बार चढ़ने-उतरने का क्या सार; अब उसको ही चढ़ लें
जिसके बाद चढ़ने को फिर कुछ बचता नहीं है।
तुम्हें देख कर बोलना पड़ता है: तुम्हारी समझ कहां तक खींची जा सकती है?
कहीं ऐसा तो न होगा कि बात बिलकुल तुम्हारे सिर पर से निकल जाएगी।
और निश्चित ही अर्जुन भला आदमी था, अत्यंत भला था। अन्यथा कभी युद्ध के
मैदान में किसी को इतना होश आता है कि सोचे? क्रोध से, ज्वर से भरा हुआ जब
दुश्मन सामने खड़ा हो, तुम्हें भी खयाल आता है कभी? जब दूसरा तुम्हें गाली
दे रहा हो और शंख बजा दिए हों युद्ध के, तब तुम्हें यह खयाल आता है कि
मारूं, न मारूं? मारना उचित होगा कि न मारना? खयाल की बात कहां, तुम्हें
होश ही नहीं रह जाता। युद्ध के क्षण में होश की बात करनी, युद्ध के क्षण
में इस तरह बोलना जैसा संन्यासी को शोभा देता है; सैनिक की बात ही नहीं है
अर्जुन में।
और यह, जिस गणित को मैं निरंतर तुम्हें समझाता हूं, उसे फिर तुम्हें
समझाऊं: जब कोई सैनिक अपनी सैन्य शक्ति की पराकाष्ठा पर होता है तब संन्यास
का जन्म हो जाता है। क्योंकि जान लिया सब; अर्जुन ने सब जान लिया खेल
मारने का, मरने का। वह कोई छोटा-मोटा सैनिक नहीं है; उससे बड़ा कोई सैनिक
नहीं हुआ। वह प्रतिमान है सैनिकों का। उसने सब जान लिया; सब तरह के खेल
हिंसा के जान लिए। इस तरफ या उस तरफ उसका कोई भी मुकाबला नहीं है। वह बेजोड़
है। इस बेजोड़ सैनिक के मन में संन्यास का भाव आ रहा है। छोटे-मोटे सैनिक
के मन में नहीं आता; अभी सेना की यात्रा बाकी है, अभी लड़ना बाकी है। यह लड़
चुका, जीत चुका, सब देख चुका; सबको व्यर्थ पाया, संन्यास का भाव उठ रहा है।
इसलिए तुम चकित होओगे, क्षत्रियों ने जितने संन्यासी पैदा किए हैं, और
जितने गहन संन्यासी, उतने ब्राह्मणों ने पैदा नहीं किए। क्षत्रियों की बात
ही और है। उन्होंने देख लिया सब राग-रंग हिंसा का, इसलिए अहिंसा की बात
उनकी समझ में आती है।
इसलिए मैं गांधी और महावीर की स्थिति को बड़ा भिन्न मानता हूं। महावीर
क्षत्रिय हैं; गांधी बनिया हैं। महावीर जिनको समझा रहे थे वे सब सैन्य-जीवन
में निष्णात लोग थे; गांधी जिनको समझा रहे थे वे सब डरे हुए, डरपोक लोग
थे, भयभीत लोग थे। अन्यथा एक हजार साल तक कोई कौम गुलाम रहती है? और एक
छोटी सी कौम इतनी विराट कौम को तीन सौ साल तक, दो सौ साल तक गुलाम रख ले!
उसके पहले आठ सौ साल तक इसलाम गुलाम रखे! एक हजार साल लंबे समय तक जो कौम
गुलाम रही हो, वह कोई बहादुरों की कौम नहीं हो सकती। वे डरपोक हैं, कमजोर
हैं, कायर हैं। गांधी कायरों से बोल रहे थे।
और इसलिए गांधी की अहिंसा सिर्फ एक तरकीब थी। मनुष्य बहुत तरकीबें खोजता
है अपनी कायरता को छिपा लेने की। और गांधी की बात कायरों को जंच गई और काम
भी कर गई। काम भी कर गई, लेकिन काम होते ही सब बिखर गया। क्योंकि जैसे ही
कायर ताकत में आए, फिर वे भूल गए अहिंसा वगैरह। बिलकुल आसान था ब्रिटिश
हुकूमत से लड़ना अहिंसा से, क्योंकि हिंसा से लड़ने की हमारी कोई सामर्थ्य ही
न थी। लेकिन जैसे ही शक्ति में आई अहिंसकों की सेना, वैसे ही वे सब हिंसक
हो गए, वैसे ही उठा ली बंदूक।
यह कायर की अहिंसा थी जो अपने को छिपा रहा था। अन्यथा असली रूप तो तब
प्रकट होता जब सत्ता हाथ में आती। अगर ये असली अहिंसक थे तो जब तुम बिना
सत्ता के अहिंसक रह सके तो सत्ता में तो तुम्हें बिलकुल अहिंसक हो जाना था।
जब दुश्मन से तुम लड़ सके अहिंसा से तो अपने ही लोगों को समझाने में अहिंसा
काम न आई? अपने ही लोगों की छाती में गोली दागने में तुम्हें रास्ता दिखाई
पड़ता है?
साफ है मामला। तुम्हारे हाथ में गोली न थी, न हाथ तैयार थे, न हिम्मत थी
गोली चलाने की अंग्रेज के खिलाफ। लेकिन अब ये गरीब हिंदुस्तानियों के
खिलाफ तो तुम गोली मजे से चला सकते हो; कोई अड़चन नहीं है। हाथ में बंदूक भी
है, ताकत भी है, चलाओ गोली।
तो जितनी गोली इन पच्चीस साल की आजादी में अहिंसावादियों ने चलाई है,
गांधीवादियों ने चलाई है, उतनी अंग्रेजों ने अपने पूरे दो सौ साल में नहीं
चलाई थी। सच बात तो यह है कि गांधी की अहिंसा जीत सकी, क्योंकि अंग्रेज कौम
बड़ी विशिष्ट कौम है। अन्यथा जीत नहीं सकती थी।
थोड़ी देर को समझो कि अंग्रेजों की जगह जर्मन होते; गांधी-वांधी की कोई
स्थिति नहीं थी। अंग्रेज बड़ी सुसंस्कृत कौम है। वह अहिंसा की भाषा को समझ
सकी। जर्मन होते, मिट्टी में मिला देते। गांधी को कोई इतना सम्हाल कर रखने
की जरूरत नहीं। तुम थोड़ा सोचो, अंग्रेज गांधी को न मार पाए और हिंदुओं ने
खुद मार दिया! अंग्रेजों को क्या दिक्कत थी इस आदमी को मिटाने में? इतना
आसान मामला था, इससे ज्यादा आसान कुछ भी नहीं था कि इस आदमी को मिटा दो,
झंझट खतम करो।
लेकिन नहीं; अंग्रेज जाति के पास एक अंतःकरण है, एक समझ है; उदार है। यह
आदमी अहिंसक था तो इसको मिटाया नहीं; इसको बचाया, सम्हाला; इसको सब तरह से
सम्हाला; और धीरे से इसको राज्य भी सौंप दिया। फिर हमने ही मार डाला।
वल्लभ भाई पटेल न बचा सके जो कि गांधी के सरदार थे, और अंग्रेज बचाए रहे।
और ऐसी संभावना है पूरी कि गांधी के मारने में जाने-अनजाने गांधीवादियों का
भी हाथ है। कहता हूं, जाने-अनजाने। अचेतन मन से वे भी चाहते थे कि अब यह
बुङ्ढा खतम हो, क्योंकि अब यह एक उपद्रव था। पहले तो यह नेता था, अब यह एक
उपद्रव था। पहले तो यह कायरों को छिपाने का आवरण था। और अब? अब यह हर चीज
में अड़ंगा डाल रहा था। क्योंकि यह अब भी अपनी अहिंसा का राग लगाए हुए था।
गांधी की अहिंसा वस्तुतः कायर आदमी की सांत्वना है। और गांधी ने पूरा
अहिंसा का शास्त्र बड़ी कायरता से विकसित किया। अगर तुम गांधी का जीवन ठीक
से समझने की कोशिश करो तो तुम पाओगे, यह आदमी अपनी जवानी में बहुत कायर
आदमी था। इतना कायर कि कहना मुश्किल है। जब वे भारत से यूरोप की यात्रा पर
जा रहे थे तो कसम मां ने दिला दी ब्रह्मचर्य की।
वह कसम भी कायरता में ही खाई होगी; क्योंकि मां कहती थी, जाने न देंगे,
अगर ब्रह्मचर्य की कसम न खाई। तो कसम खा ली, क्योंकि जाना था। एक सज्जन से
मित्रता हो गई जहाज पर। और जब कैरो में जहाज रुका तो वे सज्जन वेश्या के घर
जा रहे थे, जैसा कि जहाज में यात्रा करने वाले लोग, हर जगह जहां जहाज
रुकता है, स्त्रियों की तलाश करने निकलते हैं। और हर जहाजी नगर वेश्याओं का
घर हो जाता है। वह आदमी एक वेश्या के यहां जा रहा था। उसने कहा कि आओ, चलो
भी!
गांधी इतने कायर कि उससे यह न कह सके कि मुझे नहीं जाना है। तब तुम्हें
समझ में आएगा कि ब्रह्मचर्य का व्रत भी कैसे लिया होगा। मां ने कहा लो, तो
ले लिया। इस आदमी ने कहा चलो, तो अब उनको ऐसा लगा अगर मैं कहूं कि मुझे
नहीं जाना है या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया है तो यह आदमी समझेगा कि पता
नहीं नपुंसक है, क्या है, क्यों डरता है। डर के मारे उसके साथ चले गए।
हाथ-पैर कंप रहे हैं, क्योंकि व्रत लिया है। डर लग रहा है कि अब यह बड़ी
मुसीबत हुई। और इसको भी न नहीं कह सकते और वह आदमी ऐसा है जिद्दी कि वह
सुनेगा भी नहीं। वह ठीक वेश्या के घर ले गया। उसने जाकर वेश्या के कमरे में
उनको प्रवेश भी करवा दिया।
वे उस वेश्या से भी न कह सके कि मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है और
मुझ पर कृपा करो, मुझे जाने दो, मैं बड़ी भूल में आ गया। वे आंख बंद करके
बैठ गए वहां। हाथ कंप रहे हैं, पसीना बह रहा है; वह वेश्या बेचारी सेवा कर
रही है कि यह मामला क्या हो गया! किसी तरह हिम्मत जुटा कर वहां से वापस
लौटे।
उनका अगर पूरा जीवन पढ़ो तो तुम पाओगे कि सारे जीवन का सूत्र कायरता थी।
वे भीरु आदमी थे और उनका धर्म भीरु का धर्म था। और उसी भीरुता में से
उन्होंने धीरे-धीरे अहिंसा का शास्त्र निकाला। तो कायरता तो छिप गई और
अहिंसा ऊपर आ गई।
मगर बहुत मुश्किल है, क्योंकि एक दफा जब हम एक आदमी को स्वीकार कर लेते
हैं, पूजने लगते हैं, तो कभी उसके जीवन का ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं करते, और
कभी उसके जीवन की पर्तों में नहीं उतरते कि उसका जीवन कैसे निर्मित हुआ।
महावीर की बात और है। वह एक क्षत्रिय की अहिंसा थी। वह अहिंसा किसी
कायरता से पैदा नहीं हो रही थी। वह अहिंसा बड़े अभय से आई थी। और कृष्ण भी
क्षत्रिय हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। मोहम्मद भी क्षत्रिय
हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। ये लड़ाके हैं, और अहिंसा तो
आखिरी लड़ाई है। तब तुम प्रेम से लड़ते हो, मगर वह लड़ाई है। हिंसा में तुम
घृणा से लड़ते हो, क्योंकि तुम्हें अपने प्रेम का भरोसा नहीं है। और हिंसा
में तुम तलवार उठाते हो, क्योंकि तुम्हें अपने बल पर भरोसा नहीं है, तलवार
का सहारा लेते हो।
अहिंसा आदमी की आखिरी ताकत है। तब वह तलवार छोड़ देता है, क्योंकि हाथ
काफी हैं। तब वह शस्त्र छोड़ देता है, क्योंकि हृदय काफी है। तब वह हमला
नहीं करता, क्योंकि प्रार्थना काफी है। तब वह तुम्हें अपने प्रेम से हरा
देता है। वह तुम्हें हराना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी व्यर्थ है। वह
तुम्हारे ऊपर जीतना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी हिंसा है। वह तुमसे हार
जाता है, और तुम्हें हरा देता है।
वही लाओत्से का पूरा शास्त्र है कि तुम हारो। और तुम जिससे हार जाओगे
उसे तुम हरा दोगे। इसलिए लाओत्से स्त्रैण शक्ति का बड़ा हामी और बड़ा तरफदार
है। वह कहता है, स्त्री की ताकत क्या है? स्त्री की ताकत यह है कि वह जिसको
प्रेम करती है उससे हार जाती है। और तुम्हें पता है कि वह हार कर तुम पर
पूरा कब्जा कर लेती है। तुम्हें लगता है तुम जीत गए; जीतती वही है।
एक कमजोर से कमजोर स्त्री जो तुम्हारे प्रेम में तुमसे हार जाती है, और
तुम्हारे कंधे का ऐसा ही सहारा लेती है जैसे कोई लता वृक्ष का सहारा लेकर
चढ़ती है–बिलकुल कमजोर, अपने में खड़ी भी न हो सकेगी लता, वृक्ष का सहारा
चाहिए। एक स्त्री बिलकुल हार जाती है; लता की तरह तुम्हारे चारों तरफ लिपट
जाती है–बिलकुल हारी हुई। लेकिन अंततः तुम पाओगे कि वह जीत गई, तुम हार गए।
वह बिना कहे, जो करवाना चाहती है, करवा लेती है। वह बिना इशारे के तुम्हें
चलाती है। वह तुम्हारे पीछे होती है, लेकिन वस्तुतः तुम्हारे आगे होती है।
उसकी तरकीब आगे होने की यही है कि वह तुम्हारे पीछे हो जाती है। वह
तुम्हें प्रेम में दबा लेती है। वह तुम्हें सेवा से भर देती है। वह
तुम्हारे आस-पास इतनी कोमल हवा को पैदा कर देती है कि तुम उस हवा को तोड़ना
भी न चाहोगे।
जब भी कोई स्त्री प्रेम में होती है तब जो घटना घटती है वही अहिंसक के
पास भी घटती है। हिंसा पुरुष के मन का लक्षण है। अहिंसा स्त्री के हृदय का
भाव है।
अहिंसा से ही अहिंसा आती है; हिंसा से कभी अहिंसा नहीं आती। लेकिन ऐसी
स्थितियां हो सकती हैं जब हिंसा-अहिंसा के बीच चुनाव ही नहीं होता; चुनाव
अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा के बीच होता है। और कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती
है कि चुनाव अच्छी अहिंसा और बुरी अहिंसा के बीच होता है। और यही मैं फर्क
करता हूं महावीर और गांधी की अहिंसा में। महावीर की अहिंसा, बात और। उसके
भीतर अभय है; वह अच्छी अहिंसा है। गांधी की अहिंसा, बात और। उसके भीतर भय
है और कायरता है। वह बुरी अहिंसा है।
तो चार चीजें हैं संसार में। हिंसा और अहिंसा दो चीजें ही होतीं तो आसान
हो जाता मामला; जटिल है मामला। यहां अच्छी अहिंसा भी है, रुग्ण अहिंसा भी
है। यहां स्वस्थ हिंसा है और रुग्ण हिंसा भी है। और इन चारों के बीच केवल
वही चुनाव कर सकता है जिसकी अंतःप्रज्ञा बहुत थिर हो गई हो। जब तुम चीजों
के आर-पार देखने में समर्थ हो जाओगे तुम्हारे ध्यान से, तभी तुम्हें साफ हो
पाएगा। क्योंकि बुरी अहिंसा भी अहिंसा मालूम पड़ती है और अच्छी हिंसा भी
हिंसा मालूम पड़ती है। इसलिए तुम्हें या तो मोहम्मद और कृष्ण हिंसक मालूम
पड़ेंगे, अगर तुम अच्छी हिंसा को देखने में समर्थ नहीं हो। और या तुम्हें
गांधी अहिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम बुरी अहिंसा को पहचानने में समर्थ नहीं
हो।
तुम्हारी प्रज्ञा इतनी गहन जब हो जाएगी, जब विचार शांत हो जाएंगे और
तुम्हारा मन का दर्पण उजला होगा, धूल हट गई होगी, तभी तुम देख पाओगे। और तब
तुम हर जगह यह बात पाओगे कि यहां अच्छा चरित्र भी है और बुरा चरित्र भी
है; यहां अच्छे अपराधी हैं, बुरे अपराधी भी हैं; यहां संत भी अच्छे हैं और
बुरे संत भी हैं। क्योंकि तुम्हें यह लगेगा कि यह तो बड़ी मैं अटपटी बात कह
रहा हूं, क्योंकि संत यानी अच्छा। लेकिन संतत्व भी अगर भय पर खड़ा हो तो
बुरा और असंतत्व भी अगर अभय पर खड़ा हो तो अच्छा।
जीवन थोड़ा जटिल है; उतना सरल नहीं जितना तुम गणित को सरल पाते हो। और
जीवन की जटिलता को पहचानने की क्षमता जब तक विकसित न हो, तब तक बहुत सी
बातें जो मैं तुमसे कहता हूं, तुम समझ न पाओगे। और डर यह है कि तुम कहीं
उलटा न समझ लो। इसलिए बहुत होश से मेरे साथ चलना, क्योंकि बहुत बार मैं
बहुत खतरनाक रास्ते पर चलता हूं। चलना जरूरी है, क्योंकि ऐसे ही चल-चल कर
तुम्हारा अभ्यास भी होगा और खतरनाक रास्ते भी सुगम और सरल हो जाएंगे।
ताओ उपनिषद
ओशो
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