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Friday, January 15, 2016

सत्संग का अर्थ

साधु-संगत का अर्थ है, साधुओं के साथ होना। अभी तुमने गुरु नहीं चुना। अभी तुम्हें जहां खबर मिल जाती है कि कोई साधु पुरुष है, कोई सत्पुरुष है, तुम वहीं जाते हो। साधु-संगत का अर्थ है, जहां से भी रोशनी मालूम होती है, खबर मिलती है, वहां जाते हो। बैठते हो साधुओं के पास। रमते हो उनके साथ। थोड़ी डुबकी लेते हो उनके रस में।

जब ऐसी डुबकी लेते-लेते, साधु-संगत करते-करते कोई एक साधु तुम्हारे लिए विशिष्ट हो जाता है; तुम किसी साधु के प्रेम में पड़ जाते हो; तब सत्संग शुरू हुआ।

बहुत साधु हैं; गुरु तो एक ही होगा। साधुओं के पास रमते-रमते, साधुओं के निकट होते-होते किसी दिन तुम पहचान लोगे, कौन तुम्हारा गुरु है। कौन साधु तुम्हारे लिए है। किससे तुम्हारा तालमेल बैठ गया। किसकी चाबी तुम्हारे ताले से मिल जाती है। कौन है, जिससे तुम्हारे हृदय के स्वर छिड़ते हैं। कौन है, जिसके पास जाते ही तुम रोमांचित हो जाते हो। कौन है, जो तुम्हें अहोभाव से भर देता है। किसके पास, सिर्फ पास होने से स्नान हो जाता है।

यह तो तुम साधुओं की संगत करते-करते पहचानोगे। तो साधु- संगत पहला चरण है। उससे रस लगेगा, समझ बढ़ेगी, स्वाद थोड़ा-थोड़ा आएगा, लेकिन वह काफी नहीं है। दूसरा चरण सत्संग है। सत्संग का अर्थ है, कि अब तुमने चुन लिया। अब तुम यूं ही नहीं तलाश रहे हो। अब तुमने एक की बांह पकड़ ली। अब सत्संग शुरू हुआ।

साधु-संगत में तो थोड़ा सा संदेह बना रहेगा, विचार बना रहेगा। क्योंकि संदेह न होगा, विचार न होगा तो चुनोगे कैसे? खोजोगे कैसे? तो साधु-संगत तो संदेह का और विचार का ही अंग है। लेकिन जैसे ही तुमने चुना–हां, चुनने के पहले जितना संदेह कर लेना हो, कर लेना। चुनने के पहले जितना विचार करना हो, कर लेना। वर्षो रुकना हो, रुक जाना। साधु-संगत पूरी तरह कर लेना।

लेकिन जब चुनो, तो चुनाव का अर्थ होता है, कि अब संदेह छोड़ देना; नहीं तो चुनाव हुआ ही नहीं। साधु-संगत जारी रही, सत्संग शुरू न हुआ। सत्संग क्रांति है। साधु-संगत से छलांग है। अब तुमने किसी को चुन लिया। अब तुम अंधे होते हो। अब तुम अपनी आंख बंद करते हो। अब तुम कहते हो, हम किसी और की आंख से चलेंगे। अपनी आंख से इतना काम ले लिया, कि उसको पहचान लिया जिसकी आंख से चलना है। अपने संदेह का उपयोग कर लिया। उसके हाथ पकड़ लिए, जिसके हाथ में भरोसा छोड़ा जा सकता है।

सत्संग का अर्थ है, श्रद्धा। साधु-संगत का अर्थ है, विचार। बहुत साधुओं में घूमोगे, खोजोगे, पहचानोगे, समझोगे; लेकिन जब मिल जाए कोई, तब विचार मत करते खड़े रहना। तब डूब लेना श्रद्धा में। तब हाथ पकड़ लेना और तब कहना, अब जहां ले चलो।

इसके पहले जितना विचार करना है, उचित है। इसके बाद विचार करना अनुचित है। क्योंकि अगर इसके बाद भी विचार जारी रखा तो सत्संग शुरू ही नहीं हुआ। क्योंकि सत्संग तो एक बड़ा भीतरी रसायन है। सत्संग का अर्थ है, किसी के पास इतनी परम श्रद्धा से होना, कि अगर वह दिन को रात कहे तो भी संदेह न उठे। मन में यही खयाल हो, कि जरूर कोई कारण होगा। वह ठीक ही कहता होगा।

सत्संग तो प्रेम जैसा है, अंधा है। सारी दुनिया कहेगी, तुम्हारी प्रेयसी कुरूप है, सुंदर नहीं है; इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम तो अंधे हो। तुम्हारी आंखों में तो वह सुंदर ही दिखाई पड़ती है।

श्रद्धा एक अर्थ में परम दृष्टि है और एक अर्थ में परम अंधापन। तुम अपने विचार को उपयोग कर लिए, अब तुम उसे हटा कर रख देते हो। अब तुम कहते हो, अब और नहीं सोचना है। सोच-सोच कर पा लिया, अब ये चरण मिल गए; अब बस, श्रद्धा से पकड़ लेना है।

सत्संग का अर्थ है, किसी के पास अनन्य श्रद्धा के साथ होना। धीरे-धीरे, जब इतनी अनन्य श्रद्धा होती है तो अपने आप विचार क्षीण होते जाते हैं, शून्य होते जाते हैं। सत्संग ध्यान बन जाता है। सत्संग करनेवाले को ध्यान करने की अलग से जरूरत ही नहीं पड़ती। वह तो गुरु के पास होते-होते, होते-होते-होते गुरु जैसा हो जाता है। समान तुम्हारे भीतर, अपने समान को ही पैदा कर देता है। अगर प्रकाश श्रद्धा कर ले, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ प्रकाश अगर श्रद्धा कर ले बाहर के प्रकट प्रकाश में तो वह भी प्रकट हो जाएगा। तुम जिसमें श्रद्धा करते हो, धीरे-धीरे वैसे ही हो जाते हो।

श्रद्धा एक रसायन है, एक अल्केमी है, गुरु के पास होने का ढंग है। अब तुम हो, बस! तुम उसके पास बैठते हो। वह बोलता है, सुनते हो। वह चुप होता है, तो उसकी चुप्पी सुनते हो। वह नहीं बोलता तो उसका न बोलना सुनते हो; उसका मौन सुनते हो। वह उठता है, चलता है, बैठता है, तुम उसके साथ ऐसे डोलते हो जैसे तुम वही हो। तुम उसकी छाया बन गए होते हो।

धीरे-धीरे, जैसे-जैसे तुम मिटते हो, गुरु तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है। तुम जगह खाली करते हो, वह जगह को भरता जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है, शिष्य विलीन हो जाता है, गुरु ही शेष रह जाता है।

सत्संग अगर आ जाए, तो कुछ और चाहिए नहीं। अगर तुम प्रेमी हो, तो सत्संग प्रार्थना बन जाएगा। अगर तुम ध्यानी हो, सत्संग ध्यान बन जाएगा।

सत्संग कोई मार्ग नहीं है। सत्संग तो सभी मार्गो का सार-निचोड़ है। सत्संग न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई। सत्संग न तो स्त्रैण-चित्त है, न पुरुष-चित्त। सत्संग तो दोनों के लिए समान है। मैं फर्क देखता हूं–सत्संगी में फर्क होगा। अगर स्त्रैण-चित्त व्यक्ति मेरे पास आता है, या स्त्रियां मेरे पास आती हैं, तो मैंने अनुभव किया, कि उनका लगाव मुझसे पहले होता है। फिर मुझसे लगाव है, इसलिए जो भी मैं कहता हूं, वह उन्हें ठीक मालूम होता है।

अगर पुरुष-चित्त का व्यक्ति या पुरुष मेरे पास आते हैं, तो मैं जो कहता हूं, वह ठीक है, यह उन्हें पहले अनुभव में आता है। फिर इस कारण मुझसे लगाव पैदा होता है। स्त्रियां पहले मेरे प्रेम में पड़ जाती हैं–स्त्रैण चित्त मेरा मतलब; उन्हें मुझसे लगाव हो जाता है सीधा, फिर मैं जो भी कहता हूं, वह उन्हें ठीक लगता है। पुरुष पहले जो मैं कहता हूं वह उन्हें ठीक लगने लगता है, तब वे मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं।

सत्संग तो दोनों के लिए खुला है, हालांकि दोनों के ढंग में इतना फर्क होगा। प्रार्थना वाला चित्त पहले प्रेम में पड़ेगा, फिर जो भी कहा जा रहा है, वह ठीक लगने लगेगा, उसका अनुसरण करेगा। ध्यान वाला चित्त पहले विचार को उपलब्ध होगा, फिर जो भी विचार में ठीक मालूम पड़ा है, उसका प्रेम जन्मेगा।

इतना सा फर्क होगा, लेकिन सत्संग में दोनों मिल जाते हैं। सत्संग संगम है। वहां सब मिल जाते हैं। इसलिए ऐसा कोई धर्म नहीं दुनिया में, जिसने सत्संग की महिमा न गाई हो। ईश्वर को माननेवाले धर्म हैं, न माननेवाले धर्म हैं, आत्मा को माननेवाले धर्म हैं, न माननेवाले धर्म हैं; पुनर्जन्म को माननेवाले धर्म हैं, न माननेवाले धर्म हैं; लेकिन ऐसा कोई धर्म नहीं, जो सत्संग को न मानता हो। साधु-संगत और सत्संग तो सभी धर्मो का सार है।
पहले साधुओं के पास उन्मुख होना; जो भले लोग हैं, उनके पास रहना, ताकि भले का थोड़ा-सा रोग तुम्हें भी लग जाए। भलों के साथ रहोगे तो भलाई का थोड़ा-सा रंग लग ही जाएगा। अब काजल की कोठरी से कोई गुजरेगा तो थोड़ी कालिख लग ही जाएगी।

साधु-संगत का इतना ही मतलब है, कि तुम उनके साथ रहना जिनको परमात्मा का रंग लग गया है, तो तुम्हें भी थोड़ा-बहुत रंग लग जाएगा। उस रंग से यात्रा शुरू होगी। उससे पहले दफा अभीप्सा का जन्म होगा, कि मैं भी खोजूं, मैं भी पाऊं।

फिर साधु-संगत से धीरे-धीरे तुम साधुओं के बीच एक को चुनना। क्योंकि सभी साधु तुम्हें न ले जा सकेंगे। सभी साधु तुम्हारे लिए नहीं हैं। तुम्हारे लिए तो कोई एक है। उससे मिलते ही तुम्हारे भीतर कुछ सांधा बैठ जाता है। एकदम से सांधा बैठ जाता है। उसके पास आते ही तुम्हारे भीतर कोई चीज टूट जाती है, बदल जाती है। फिर तुम कभी वही आदमी नहीं हो सकते, जो तुम पहले थे। तुम उसे छोड़कर न जा सकोगे। तुम उससे भाग न सकोगे। भागने के तुम उपाय भी करो, तो भी उपाय काम न आएंगे।

जब ऐसी घड़ी आ जाए, तब सत्संग। तब भागने की, संदेह की, विचार की सब यात्राओं को बंद कर देना और बैठे रहना गुरु के पास। तब बैठे-बैठे ही सब मिल जाएगा। तब न तो कुछ पूछने को है, न कुछ जानने को है। पूछना, जानना साधु-संगत में चलेगा।

मेरे पास दोनों तरह के लोग हैं। कुछ, जो साधु-संगत कर रहे हैं; कुछ, जिनका सत्संग शुरू हो गया। जो साधु-संगत कर रहे हैं, वे मेरे मेहमान हैं। कभी आते हैं, जाते हैं। अभी उनको और साधुओं की संगत भी करनी है। अभी उनका चुनाव नहीं हुआ है।

कुछ हैं, जिनका सत्संग शुरू हो गया; जिन्होंने छलांग ले ली। जिन्होंने छलांग ले ली है, अब उन्हें कहीं नहीं जाना है। उनकी मंजिल आ गई। जिसे खोजना था, उसे उन्होंने खोज लिया। अब सिर्फ उसके पास होना है।

जिस दिन सत्संग शुरू होता है, उसी दिन बड़ी तृप्ति मालूम होने लगती है। साधु-संगत में तो एक बेचैनी रहेगी। खोजना है, पाना है, जांच-पड़ताल करनी है। बड़ा बाजार है साधुओं का भी। भिन्न-भिन्न तरह के साधु हैं, भिन्न-भिन्न तरह के संत हैं। उनके ढंग अलग, उनकी शैलियां अलग। बहुत बार वे बड़े विरोध में भी मालूम पड़ते हैं–वह भी उनका ढंग है। एक-दूसरे का खंडन भी करते हैं–वह भी उनका ढंग है।

तुम उनके खंडन से परेशान मत होना। तुम इस चिंता में ही मत पड़ना कि वे क्या कहते हैं। क्यों किसी का खंडन करते हैं, क्यों किसी का विरोध करते हैं? तुम तो इसी की फिक्र करना, कि इस कौन से तुम्हारा राग मिल जाता है। कौन से तुम्हारा संगीत मिल जाता है। किसके हृदय के पास तुम्हारा हृदय एक सी ही धड़कन से धड़कने लगता है। किसके हृदय के साथ तुम्हारी धड़कन की गति और छंद बैठ जाता है।

बस, वह तुम्हारे लिए है। मंजिल आ गई। सत्संग शुरू हुआ। अब सिर्फ साथ होना काफी है, पास होना काफी है। अब सिर्फ गुरु की मौजूदगी काफी है, उपस्थिति काफी है। और उसकी उपस्थिति एक अग्नि है। जैसे ही तुम सत्संग में प्रविष्ट हुए, तुम्हारे भीतर कचरा जलना शुरू हो जाएगा और स्वर्ण निखरने लगेगा।

कबीर ने, नानक ने साधु-संगत और सत्संग के बड़े गीत गाए हैं। लेकिन मैं समझता हूं, किसी ने कभी ठीक से साफ नहीं किया है कि साधु-संगत और सत्संग अलग-अलग बातें हैं। एक ही प्रक्रिया है, लेकिन बड़ी भिन्न है।
कुछ लोग साधु-संगत करते-करते ही मर जाते हैं। सत्संग का मौका ही नहीं आ पाता। कभी-कभी साधु-संगत करना ही एक रोग हो जाता है, कि आज इसको सुना, कल उसको सुना, परसों वहां गए। जा रहे हैं इस आश्रम उस आश्रम। धीरे-धीरे यह जाना-आना ही रोग हो जाता है। चुनने का खयाल ही भूल गया। तो तुम एक ऐसे आदमी हो गए, जैसे कुछ लोग बाजार जाते हैं, उन्हें खरीदना कुछ भी नहीं है। वे सिर्फ इस दुकान में झांक कर देखते हैं, उस दुकान में झांक कर देखते हैं। कभी-कभी अंदर जाकर चीजों के दाम-भाव भी पूछते हैं, कभी मोल-भाव भी करते हैं। लेकिन उन्हें कुछ खरीदना नहीं है। वे सिर्फ समय गुजारने चले आए।

साधु-संगत समय गुजारना भी हो सकता है। तब उसमें कभी सत्संग का फल न लगेगा। तब वह व्यर्थ है। उसका कोई अर्थ नहीं है। किसी न किसी दिन निर्णय लेना पड़ेगा। निर्णय का मतलब है, कमिटमेंट। निर्णय का अर्थ है, कि अब तुमने एक को चुना और तुम उसके पीछे जाने को राजी हुए।

खतरे हैं। लेकिन किसी न किसी दिन खतरा तो लेना ही पड़ता है। जोखिम उठानी ही पड़ती है। बिना जोखिम के संसार में कोई भी विकास नहीं है। और बिना खतरे के कोई क्रांति घटित नहीं होती। दांव पर तो लगाना ही पड़ेगा। यह तो बड़ा जुआ है। इससे बड़ा कोई जुआ नहीं है।

कहे कबीर दीवाना 

ओशो 

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