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Wednesday, December 26, 2018

दान और दान में फर्क

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने वाले को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही।

प्रश्नः अगर कोई आदमी भूखा मरता हो और उसको खाना खिला दिया तो यह कैसा रहा?


अगर आपको ऐसा खयाल आए कि मैंने खाना खिला दिया तो कोई बड़ा काम कर लिया, तो यह दान पाप होगा। खयाल तो यह आना चाहिए कि कितनी मजबूरी है, कितनी कठिनाई है! अकाल पड़ जाता है, हम कुछ भी नहीं कर पाते। हम दो रोटी दे पाते हैं। तो दुखी होना चाहिए कि दो रोटी देने से कुछ हो गया है क्या? अगर प्रेम से आप जाएंगे अकाल में काम करने तो आप पीड़ित अनुभव करेंगे कि कितना काम हम कर पा रहे हैं, जो कुछ भी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अकाल संभव न हो, एक आदमी भूखा न मरे। हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। आपकी पीड़ा यह होगी कि सब कुछ करते हुए हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन वह जो दान देने वाला है वह वहां से अकड़ कर लौटेगा कि मैंने इतने लोगों को खाना खिलाया था।


तो दान का बोध ही गलत है। प्रेम से दान निकलता है, वह बात ही अलग है। वह इतना ही सहज है कि उसका कभी भी नहीं चलता। उसकी कोई रेखा ही नहीं छूट जाती कुछ। बल्कि प्रेम से दान निकलता है, हमेशा प्रेमी को लगता है कि कुछ कर पाया।



एक मां से पूछें कि उसने अपने बेटे के लिए क्या किया। वह कहेगी मैं कुछ भी नहीं कर पाई। जहां पढ़ाना था, पढ़ा नहीं पाई, जो खाना खिलाना था वह खिला नहीं पाई, जो कपड़ा पहनाना था वह मैं नहीं पहना पाई। मैं लड़के के लिए कुछ भी नहीं कर पाई। और एक संस्था के सेक्रेटरी से पूछें कि उसने संस्था के लिए क्या-क्या किया? तो वह हजार फेहरिस्त बनाए हुए खड़ा है कि हमने यह किया, हमने यह किया, हमने यह किया। जो उसने नहीं किया उसका भी दावा है कि हमने किया। और मां ने जो किया भी, उसकी भी वह दावेदार नहीं है। वह कहेगी कि मैं कुछ भी नहीं कर पाई।


तो प्रेम के पीछे कभी भी यह भाव नहीं छूट जाएगा कि मैंने कुछ किया। और जिस दान में यह भाव रहता है कि मैंने कुछ किया, उसको मैं पाप कहता हूं। वह अहंकार का ही पोषण है।


तो प्रेम से जो दान निकलेगा, उसकी तो बात ही और है। उसको तो दान कहने की जरूरत ही नहीं है। तो वह निकलता ही रहेगा। प्रेम तो स्वयं ही दान है। लेकिन बिलकुल ही अन्यथा बात है। और यह दान-धर्म की हम इतनी प्रशंसा करते हैं कि दान दो तो पुण्य होगा, दान दो तो स्वर्ग मिलेगा, दान दो तो भगवान तक पहुंच जाओगे, यह शरारत की बात है। इससे कोई मतलब नहीं है। यह उस आदमी के अहंकार का शोषण है। और इस भांति जो दान दे रहा है वह दान-वान कुछ नहीं दे रहा है। वह फिर शोषण कर रहा है, वह अपने स्वार्थ का फिर इंतजाम कर रहा है। आपकी दीनता-दरिद्रता उसे कहीं भी नहीं छू रही है। बल्कि आप दीन और दरिद्र हैं, इससे वह खुश है। क्योंकि उसे दानी बनने का एक अवसर आप जुटा रहे हैं। सड़क पर एक भिखारी आपसे दो पैसे मांगे, अगर आप अकेले हैं तो आप इनकार कर देंगे, अगर चार आदमी हैं तो आप दे देंगे। क्योंकि चार आदमी देखते हैं कि दो पैसा दिया। चार आदमी के सामने भिखारी को इनकार करना कि नहीं देंगे आपके अहंकार को चोट लगती है। अकेले में आप दुत्कार देंगे। इसलिए भिखारी प्रतीक्षा करता है, अकेले आदमी से नहीं मांगता है, चार आदमी हों तो पकड़ लेता है। क्योंकि इन तीन के सामने आपके अहंकार का उपयोग करता है। अब जरा मुश्किल है, इनकार करना।


मुश्किल यह है कि जब आप दे रहे हैं तब आप इसलिए दे रहे हैं कि चार लोग देख लें, चार लोगों को पता चल जाए और अगर यह आपकी कंडीशन नहीं है तो उसको मैं दान नहीं कह रहा हूं, उसको मैं प्रेम कह रहा हूं। फिर तो आप यह चाहेंगे कि कोई देख न ले। कोई क्या कहेगा कि दो पैसे भी नहीं हैं एक आदमी के पास? कोई कहेगा क्या? कि एक आदमी ने भीख मांगी और इस आदमी ने दो पैसे दिए। तब आप डरेंगे कि कोई देख न ले, अकेले में चुप-चाप दे देंगे। किसी को कहना मत। पता न चल जाए किसी को। मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया, तुम मांग रहे हो। दो पैसे मैं देता हूं यह देना हुआ। और जनरल कंडीशन यह है कि आप प्रतीक्षा कर रहे हैं कि चार लोग जान लें, या अखबार में खबर छप जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है। यह मंदिर का पत्थर लग जाए कि इस आदमी ने इतना दिया है, यह नाम खुद जाए। नहीं, यह बिलकुल जनरल कंडीशन है। दान देने वाले के माइंड की यह स्थिति है। तब तो दान चल रहा है हजारों साल से और दुनिया जरा भी कुछ अच्छी नहीं बन पाती।


तो मेरा कहना यह है कि प्रेम बढ़ाना चाहिए, दान इसलिए की बकवास बंद होनी चाहिए। उस प्रेम से जो दान फलित होगा, वह बात ही और है। उसमें फर्क इतना ही है कि जैसे एक नकली फूल आप ले आए बाजार से और असली फल पैदा हुए। उतना ही फर्क है उन दोनों दान में। तो एक की मैं प्रशंसा करता हूं और एक की निंदा करता हूं। तो उनके बीच का फासला बहुत है, फासला बहुत है।

जीवन अलोक 

ओशो

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