उन्नीस वर्ष की उम्र में चरणदास चले गए जंगलों में रोते, चीखते, पुकारते। सब कुछ दांव पर लगा दिया। और एक अपूर्व घटना घटती है। जब तुम परमात्मा को खोजने निकलते हो, तब गुरु मिलता है। निकलते तुम परमात्मा को खोजने, मिलता गुरु है। क्योंकि परमात्मा का सीधा साक्षात नहीं हो सकता। तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच भूमिका का बड़ा अंतर है। गुरु कहां तुम, कहां परमात्मा? कहां तुम बाहर-बाहर, कहां परमात्मा भीतर-भीतर इन दोनों के बीच कोई सेतु नहीं, कोई संबंध नहीं।
जो भी परमात्मा को खोजने गया है, उसे गुरु मिला है। वह परमात्मा तुम्हारे प्रति सदय हुआ, तुम्हारे भाग्य खुले इसकी खबर है, इसकी सूचना है।
मांगो परमात्मा को मिलता गुरू है। और गुरु मिल जाए, तो समझो कि तुम्हारी प्रार्थना सुनी गई; पहुंची। अब तुम अकेले नहीं हो। सेतु फैला; दोनों किनारे जुड़े।
तुम इस किनारे हो, परमात्मा उस किनारे है; गुरु सेतु हैजो दोनों किनारों को जोड़ देता है। गुरु कुछ तुम जैसा, कुछ परमात्मा जैसा। एक हाथ तुम्हारे हाथ में, एक हाथ परमात्मा के हाथ में। अब इस सहारे तुम जा सकोगे। अब यह जो झूलता सा पुल है, यह जो लक्षण झूला है इससे तुम जा सकोगे।
दूसरा किनारा तो शायद अभी दिखाई भी नहीं पड़ता, दूसरा किनारा बहुत दूर है और दूसरे किनारे को देखनेवाली आंखे भी अभी तुम्हारी जन्मी नहीं। तुम्हारी आंखे बहुत धुंघली हैं इस संसार की धुल से।
यह जो राख ही राख है, यह राख सब तरफ उड़ रही है; इसने तुम्हारी आंखों को भी धूमिल किया है और तुम्हारा दर्पण भी राख से दब गया है। और जन्मों-जन्मों से राख पड़ रही है। तुम भूल ही गए कि तुम्हारे भीतर कहीं दर्पण भी है। ऐसी अवस्था में तुम पुकारोगे परमात्मा को, मिलेगा गुरु। वास्तविक खोजी परमात्मा को खोजने जाता है और गुरु के चरण मिलते हैं। अगर गुरु के चरण मिल जायें, तो समझ लेनाः तुम्हारी अरजी स्वीकार हो गई; तुम्हारी खबर पहुंच गई। उस किनारे से जुड़ा हुआ कोई मिल गया।
नहीं साँझ नहीं भोर
ओशो
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