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Thursday, October 29, 2015

बड़ी अद्भुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिखकर मुझे भेजी है

....  बहुत प्यारी है, खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिन्दगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।

कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाये और सुबह से बहुत से लोग आ जाते..! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन न भागीदार होना चाहे! दूर दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते! फिर भोजन का समय हो जाता। तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि ‘ भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गये, तो भोजन कर जाओ।’

कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी! गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिनभर कपडा बुनकर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भागकर आयी हूं। जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।’

उस दुकानदार ने कहां, ‘अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भोजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा: है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बरबादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।’

पत्नी ने कहां, ‘कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।’

उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी; सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो असुंदर भी रही होगी, तो सुंदर हो गयी होगी। कबीर का संग साथ मिला होगा, रंग रूप निखर आया होगा। प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जायेगा! सुंदर थी बहुत सुंदर थी।

नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहां कि ‘अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोयेगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।’

पत्नी ने कहां, ‘जैसी मरजी। भोजन तो कराना ही होगा।’

कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहां, ‘यह ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया! तूने पहले ही क्यों न कहां! यह रोज रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ आऊंगी।’

वह तो ले आयी। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, ‘कहीं जाना है या क्या बात है! तू सजी सवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।’

उसने कहां, ‘जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है…!’ इसको प्रेम कहते हैं।’तुमसे क्या छिपाना है!’

पूरी कहानी कह दी कि यूं यूं मामला है।’… कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहां कि आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाये, पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात खतम हो जाती। यह रोज—रोज की अड़चन तो न होती! तो मुझे जाना है।’

कबीर ने कहां कि ‘बरसा बहुत जोरों की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!’ यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया; पत्नी को छाते में छिपाया। उसे ले गये और कहां कि ‘तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही है। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा।’

कबीर छप्पर में बैठे रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हा भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफा भी इनकार न किया। अरे, कोई सती सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।

एकदम ही भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हौ भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक, चेहरे पर बदली भी न आयी! जैसे कोई खास बात ही न हो। आयेगी भी कि नहीं यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान; आने वाने वाली नहीं है।

लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज धज कर आयी थी। जो भी घर में सुंदर था, वह पहनकर आयी थी।

घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया। सोचा न था कि पत्नी आ जायेगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देखकर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है! उसने पूछा कि ‘इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा नहीं था कि तू आयेगी। मगर आयी यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पडी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!’

उसने कहां, ‘भींगते कैसे। अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आये; खुद भींगते रहे, छाते में मुझे छिपाये रहे। कहने लगे  मै भीग जाऊं, तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है।‘

वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहां, ‘कबीर छोड़ गये! कबीर कहां हैं? गये, कि यहीं हैं?’

उसने कहां, ‘गये नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तू निपट जाये, पता नहीं, बरसा रुके न रुके। रात अंधेरी है। तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो। तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाये रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में फिर उठ आना होता है और फिर भजन कीर्तन। और भक्त इकट्ठे होंगे!’

पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहां कि ‘तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन कीर्तन कर लेना। वहीं पैर भी छू लेना। कार अभी तू अपना काम निपटा।’

उसने कहां, ‘आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो! और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो! ‘

कबीर ने कहा, ‘नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?’

यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं है। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है। इसकी नीति कुछ नीति नहीं; इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है; अछूता है। वह जल में कमलवत् है।

मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने! कौन अवतार माने! कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है  धन का।

तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!


अनहद में बिसराम 

ओशो 

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