आदमी परमात्मा को खोजे तो कहां खोजे? कुछ पता नहीं, कुछ ठिकाना नहीं।
कहां छिपा है, इसका कोई संकेत भी नहीं देता। बच्चे लुका छिपी का खेल खेलते
हैं तो थोड़ा संकेत देते हैं। छिप जाते हैं फिर वहां से आवाज दे देते हैं।
खोजने का रास्ता बता देते हैं। लेकिन परमात्मा ऐसा छिपा है कि कोई इशारा भी
नहीं मिलता, कहां!
ज्ञानी तो कहते हैं : कण कण में। ज्ञानी तो कहते हैं : पल पल में। जीसस
ने कहा है : पत्थर को उठाओ और उसके नीचे तुम मुझे पाओगे और वृक्ष की शाखा
को तोड़ो और उसके भीतर तुम मुझे पाओगे। मगर तुम पत्थर उठाते हो, कुछ नहीं
मिलता। और वृक्ष की शाखा तोड़ते हो, कुछ हाथ नहीं आता। शाखा और हाथ से टूट
गयी, पत्थर उठाने में और मेहनत हो गयी। ज्ञानी तो कहते हैं : कण कण में है।
वे तो कहते हैं : सब जगह है, पते की कोई जरूरत नहीं। संकेत चाहिए ही नहीं
सारी दिशाओं में वही व्याप्त है। लेकिन ज्ञानी की बात ज्ञानी जानें।
अज्ञानी
पूछता है : कोई पता हो, ठिकाना हो; कहां पत्र लिखूं?
एक पोस्टआफिस में एक पत्र आया। एक आदमी ने ईश्वर को लिखा था कि मेरी
पत्नी बहुत बीमार है और पचास रुपए एकदम चाहिए, इससे कम में काम नहीं चलेगा।
पचास रुपए तत्क्षण भेज दो मनीआर्डर से। और पते में लिखा था परम पिता
परमेश्वर को मिले। पोस्टआफिस के लोगों को दया आयी। बेचारा गरीब! और भी दया
आयी कि इसको यह भी पता नहीं कि परमात्मा को कहीं चिट्ठियां लिखी जाती हैं,
कहीं चिट्ठियां पहुंचायी जा सकती हैं? किसको उसका पता है? लेकिन होगा बहुत
मुसीबत में और होगा भोला भाला आदमी तो पोस्ट आफिस के क्लर्को ने कहा कि हम
कुछ इकट्ठा करके चंदा इसे भेज दें। चंदा तो किया मगर पच्चीस ही रुपए चंदा
हो पाया। तो उन्होंने पच्चीस रुपए ही भेज दिए कि कुछ तो इसको सहायता
मिलेगी।
लौटती ही डाक से चिट्ठी फिर आयी। पता लिखा था परमात्मा को मिले। बड़ी
नाराजगी में चिट्ठी लिखी थी उसने। उसने लिखी थी कि यह बात ठीक नहीं है।
अगली बार आप सीधे ही भेजना। पोस्टआफिस के जरिए भेजा तो उन दुष्टों ने
पच्चीस रुपए कमीशन काट लिया।
परमात्मा का कोई पता नहीं है। तुम आकाश की तरफ मुंह उठाकर जब प्रार्थना
करते हो तब भी तुम अज्ञात में टटोल रहे हो, तुम सिर झुकाकर जमीन पर रखकर
प्रार्थना करते हो तब भी तुम अंधेरे में टटोल रहे हो। उसका कोई पता नहीं
है। तुम्हारी भाषा उस तक पहुंचती भी है या नहीं? तुम्हारी प्रार्थनाएं इतनी
समर्थ भी हैं कि उसे खोज लेती होंगी या कि सब कोरे आकाश में खो जाता है?
गुरु परताप साध की संगती
ओशो
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