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Thursday, October 29, 2015

लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते

दो दिगंबर जैन मुनियों में मारपीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिये अब क्या मारपीट को बचा! लोग कहते हैं ’जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन’। वे तो तीनों ही छूट गईं, मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है—अब झगड़े का क्या उपाय है! उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टल दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टल दो। न हुई, खीली पर टल दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो; कुर्सी पर टांग दो; नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय…।

झगड़ा कहां हुआ? दोनों गये थे सुबह मल विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की! और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि।

पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाये। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी सी डंडी होती है; ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले वह पिच्छी से जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे; हटा दी जाये; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे। वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन, पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जायेगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जायेगा। आ गया उस दिन काम। एक दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!

कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गये। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या क्ररते, साधना करते!

और इनके झगडे का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, जो झगड़े का कारण था, वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था वह जो डंडा था।

अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडा को पोला करके अंदर उसमें गिड्डयों पर गिड्डयां उन्होंने भर रखी थीं!

झगड़ा यह हो गया कि बटवारा जो बड़े मुनि थे, वे ज्यादा चाहते थे, छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते, ‘हम पोलपट्टी उखाड़ देंगे! षड्यंत्र में कहीं कोई सीनियर जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!

इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मारपीट हो गई। रुपये भी पकडे गये। और जैनियों ने किसी तरह, रिश्वत खिलाकर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाये सबको!

मेरे पास आये कि ‘क्या करना चाहिए!’ मैंने कहां कि ‘ अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!’

उन्होंने कहां, ‘ आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आये हैं कि इसको किस तरह रफा दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है!’

मैंने कहां कि ‘मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है! और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है! निन्यान्नबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाये दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यान्नबे को बचाना है!’

लेकिन लोग निन्यान्नबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे, तो डूब जाये! संख्या का मूल्य है! हर जगह संख्या का मूल्य है।

तो वसिष्ठ इस अर्थ में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि ‘लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते।’ वह जो लौकिक साधु है..! ‘लौकिक’ अर्थात् जो साधु नहीं है, बस, दिखाई पड़ते हैं; नाम मात्र को हैं; लेबल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।

मगर ये ही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखण्डानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बडा सार्थक है।

लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बडी सार्थकता है। सूत्र कहता है : ‘ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’ ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाये। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुए और सोना हो जाये। तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा; वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?

कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दावपेंच लगाता रहा! बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला! और जब अर्जुन ने अंततः यह कहां कि ‘मेरे सब संदेह गिर गये; निरसन हो गया मेरे संदेहों का’ तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबडा गया, कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाये चला जायेगा! यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।

तर्क उसका हार गया वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रगट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गये रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी, और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था।

महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो? इससे बेहतर है निपट ही लो। उठाओ गांडीव जूझ जाओ युद्ध में। मरो मारो झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क है। मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने सामने थे; जिनमें मैत्री थी; संबंध था; एक दूसरे के प्रति सदभाव था।

तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया! तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे? तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा। हौ, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जायेगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग अलग नहीं होते हैं।

सत्य को मैं जानूं कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने कि ब जाने कि स जाने, सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाये, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता सब के अर्थ एक साथ खुल जायेंगे।
लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मानकर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा अपने भीतर और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रगट हो गये। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है, जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है!

मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीये की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे उस रोशनी में झलकेगा।

दीये को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है कि कुरान कि बाइबिल! दीये की रोशनी तो पड़ेगी सब पर समान, समभाव तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहां है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस, उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।

और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिन्दू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है!

तुम्हारा सारा जीवन उधार है! स्वभावत: तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी; ऊपर ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे; शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है; सारी दीपावली मनाई जा सकती है।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

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