तो एक तो सिगरेट पीकर तुम प्रमाद कर रहे थे। उतने से तुम्हारा मन न
माना, अब मंदिर में जाकर तुम छोड़ आए। तुम्हारे मुनि भी तुमसे गए बीते हैं
जो बड़े प्रसन्न होते हैं तुमने धूम्रपान छोड़ दिया। जैसे दुनिया का बड़ा
कल्याण हुआ जा रहा है। तुम करते ही कुल इतना थे कि धुआ भीतर ले जाते थे,
बाहर निकालते थे। तुम्हारे धुआ बाहर भीतर निकालने से न दुनिया का अकल्याण
हो रहा था, न कल्याण हो जाएगा बंद कर देने से। धुआ बाहर भीतर निकालने से
क्या कल्याण अकल्याण का संबंध! तुम इतना ही बता रहे थे कि तुम बुद्ध
हो। लेकिन, अब ये मुनि महाराज कहते हैं, तुमने बड़ा काम किया कि व्रत ले
लिया, कसम खा ली। धन्यभागी हो तुम! तुम्हारे जीवन में पुण्य की शुरुआत हुई।
पहली तो बात धुआ पीना और बाहर निकालना पाप न था; फिर धुआ निकालना, ले
जाना छोड़ना पुण्य नहीं हो सकता। तुमने भी पुण्य की कैसी बचकानी बातें बना
रखी हैं। जो लोग सिगरेट नहीं पी रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि खातेबही में
बड़ा पुण्य लिखा जा रहा होगा कि देखो, यह आदमी सिगरेट नहीं पिता, यह आदमी
पान नहीं खाता, यह आदमी तंबाकू नहीं खाता, यह आदमी यह नहीं करता, यह आदमी
वह नहीं करता, तुम जरा सोचो तो तुम्हारे कितने पुण्य चल रहे हैं। जो जो तुम
नहीं करते, वह सब पुण्य है। तुम वेश्या के घर नहीं जाते, शराब नहीं पीते,
पान नहीं खाते, सिगरेट नहीं पीते, ताश नहीं खेलते, पुण्य ही पुण्य कर रहे
हो तुम! अब और क्या कमी है तुम्हारे जीवन में? महात्मा हो तुम! जरा देखो भी
तो कि कितने पुण्य कर रहे हो! जो जो तुम नहीं कर रहे हो, उसको गिन लो।
जिस दिन तुम सिगरेट पीना छोड़ देते हो, उस दिन तुमने कोई पुण्य किया?
तुमने सिर्फ अपने पर थोड़ी अनुकंपा की जरूर, मगर पुण्य इत्यादि कुछ भी नहीं।
तुम थोड़े समझदार हुए जरूर, मगर पुण्य इत्यादि कुछ भी नहीं।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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