इन थोड़े-से शब्दों में सारे धर्म का सार है: याद घर
बुलाने लगी। जहां हम हैं, वहां हम तृप्त नहीं। जो हम हैं उससे हम तृप्त
नहीं। एक बात निश्चित है कि हम अपने घर नहीं, कहीं परदेश में हैं। कहीं
अजनबी की भांति भटक गए हैं। कहां जाना है यह भला पता न हो, लेकिन इतना सभी
को पता है कि जहां हम हैं, वहां नहीं होना चाहिए।
एक बेचैनी है। कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी ही पद-प्रतिष्ठा
जुटाओ, कुछ कमी है, जो मिटती नहीं। कोई घाव है, जो भरता नहीं। कोई पुकार है
जो भीतर कहे ही चली जाती है: यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और चलो। खोजो
घर। द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे दस्तक दिए। न मालूम कितने कितने जन्मों
में, कितने-कितने ढंग से अपने घर को खोजा है।
मगर सारी खोज एक ही बात की है कि कोई ऐसा स्थान हो, जहां तृप्ति हो। कोई ऐसी भावदशा हो, जिसमें कोई वासना न उठती हो।
वासना का अर्थ ही है कि जो हम हैं, उसमें रस नहीं आ रहा, कुछ और होना
चाहिए। चाह का अर्थ ही है बेचैनी। चाह उठती ही बेचैनी से। राहत नहीं है।
कोई कांटा चुभ रहा है। कोई अतृप्ति सब तरफ से घेरे है। सब मिल जाता है। फिर
भी अतृप्ति वैसी की वैसी बनी रहती है–अछूती, अस्पर्शित।
धर्म का जन्म मनुष्य के भीतर इस महत घटना से होता है–बेचैनी की इस घटना
से होता है। जैसे परदेश में हैं, जहां न कोई अपनी भाषा समझता, न कोई अपना
है। जहां सब संबंध सांयोगिक हैं। जहां सब संबंध मन के मनाये हुए हैं;
वास्तविक नहीं हैं। और जहां पानी का धोखा तो बहुत मिलता है, पानी नहीं
मिलता मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता जल का स्रोत, पास आते रेत ही रेत
रह जाती है।
इस भटकाव को हम कहते हैं संसार। इस भटकाव में घर की याद आने लगी तो धर्म की शुरुआत हुई।
पानी पर तिरता है आईना
आंख झिलमिलाने लगी
अगर बाहर देख-देखकर ऊब पैदा हो गई हो, देख-देखकर देख लिया हो, कुछ देखने
जैसा नहीं है, आंख झपकने लगी हो, भीतर देखने का खयाल उठने लगा हो, आंख बंद
करके देखने का भाव जगने लगा हो तो हो गई शुरुआत।
हाथ भर-भरके देख लिए, जब पाया तब राख से भरे पाया। कभी हीरों से भरा
लेकिन हीरे राख हो गए। सोने से भरा, सोना मिट्टी हो गया। संबंधों से भरा,
तथाकथित प्रेम से भरा और सब अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और
भरने की आकांक्षा न रही।
जिनसूत्र
ओशो
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