आनंद मैत्रेय, इस संबंध में पश्चिम और पूर्व की दृष्टियां भिन्न हैं।
पश्चिम सोचता है इतिहास की भाषा में, पूरब सोचता है पुराण की भाषा में।
इतिहास तथ्यों का होता है, पुराण सत्यों का। तथ्य एक विशेष स्थान में घटता
है और विशेष समय में तथ्य की सीमा होती है। तथ्य सामयिक होता है, समय की
घटना। सत्य शाश्वत है। उसकी अभिव्यक्ति भी समय में होती है, तो भी वह समय
में सीमित नहीं है।
इसलिए पूर्व में हमने जरा भी चिंता नहीं की। न राम का ठीक-ठीक इतिहास
पता है, न कृष्ण का। जो हमारे हाथ में है, कहानियां हैं। पश्चिम की नजर से
देखो तो बस कहानियां मात्र हैं, कपोल-कल्पनाएं हैं। क्योंकि जब तक ठोस
प्रमाण न हों, पश्चिम किसी बात को इतिहास स्वीकार नहीं करता। जैनों के
चौबीस तीर्थंकर कपोल-कल्पनाएं मालूम होते हैं; कोई प्रमाण नहीं। बुद्ध भी
ठीक-ठीक किस तिथि-तारीख को पैदा हुए, पक्का करना मुश्किल है।
हमने चिंता ही नहीं ली इस बात की। इससे अंतर भी क्या पडता है? बुद्ध ‘अ’
नाम के गांव में पैदा हों कि ‘ब’ नाम के गांव में पैदा हों, इससे अंतर
क्या पड़ता है? और बुद्ध इस सन में पैदा हों या उस सन में, क्या भेद पड़ेगा?
हमने बुद्धत्व को समझने की चेष्टा की है। बुद्ध के व्यक्तित्व से क्या
लेना-देना है? उनकी देह तो क्षण- भंगुर है, आज है और कल नहीं हो जाएगी।
उनका संदेश शाश्वत है। और वह संदेश एक बुद्ध का ही नहीं, वह संदेश समस्त
बुद्धों का है।
इसलिए यह भी ध्यान रखना कि जब हमने बुद्ध की प्रतिमा बनायी तो हमने इसकी
बहुत फिक्र नहीं की कि बुद्ध ऐसे ही लगते हैं या नहीं। हमने बुद्ध की
प्रतिमा गौतम बुद्ध को देखकर नहीं बनायी है, हमने बुद्ध की प्रतिमा बनायी
समस्त बुद्धों के सार-निचोड़ की तरह। बुद्ध कैसे बैठते हैं, कैसे उठते
हैं-सारे बुद्धों का जो सार-संचय है, वह हमने बुद्ध की प्रतिमा में ढाला
है। बुद्ध की प्रतिमा समस्त बुद्धों का प्रतीक है।
इसलिए तुम चकित होओगे, जैन-मंदिर में जाना कभी, चौबीस तीर्थंकरों की
प्रतिमाएं देखकर तुम हैरान होओगे, वे बिलकुल एक जैसी मालूम होती हैं। अब ये
चौबीस व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते। दुनिया में दो व्यक्ति भी एक जैसे
नहीं होते, तो चौबीस व्यक्ति तो एक जैसे कैसे हो सकते हैं? जुड़वां बच्चे भी
बिलकुल एक जैसे नहीं होते, तो ये चौबीस व्यक्ति समय की बड़ी लंबी यात्रा
में, बड़े दूर-दूर, जिनके बीच हजारों साल का फासला है, कैसे एक जैसे हो सकते
हैं?
ये एक जैसे नहीं थे। लेकिन इनके भीतर कुछ था जो एक जैसा था। वही ध्यान,
वही समाधि, वही रसधार..। उस भीतर के एक-जैसे-पन के कारण हमने बाहर की
प्रतिमा पर ध्यान नहीं दिया। हमने भीतर की अनुभूति को स्मरण रखा। बाहर की
प्रतिमा उस भीतर की अनुभूति की दिशा-सूचक मात्र है। ये जैन तीर्थंकरों की
मूर्तियां तथ्यगत नहीं हैं, सत्यगत हैं।
तथ्य तो बाहरी होता है। जैसे तुमने एक गुलाब का फूल देखा, यह तथ्य है।
तुमने दो गुलाब के फूल देखे, यह तथ्य है। और तुमने हजारों गुलाब के फूलों
का इत्र निचोड़ लिया, यह सत्य है। इसका किसी एक फूल से कुछ लेना-देना नहीं
है, यह सार है।
इसलिए इस देश की चिंता बड़ी भिन्न है। इसने फिक्र नहीं की कि गोरख कहां
पैदा हुए। अलग-अलग दावेदार हैं। कोई कहता है पंजाब, कोई कहता है बंगाल, और
सबसे बड़ा दावा नेपाल का है। क्योंकि नेपाली कहते हैं कि गोरख जिस गांव में
पैदा हुए उसका नाम है गोरखाली। इसलिए नेपालियों की एक जाति है गुरखा। वह
गोरख के नाम से है। मगर गोरख की भाषा संकेत देती है कि जैसे वे बंगाल में
पैदा हुए हों हसिबा खेलिबा करिबा ध्यानं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी मालूम
होता है। मेरे देखे वे बंगाल से लेकर काश्मीर तक, नेपाल से लेकर
कन्याकुमारी तक परिव्राजक रहे होंगे। बहुत जगह ठहरे होंगे, बहुत लोगों से
मिले-जुले होंगे बहुत जगह उनके प्रेमी पैदा हुए होंगे। बहुत जगह लोगों को
ऐसा लगा होगा कि वे हमारे हैं। इतना प्यारा व्यक्ति किसको अपना नहीं लगता!
जिनको अपना लगा होगा, उन्होंने अपनी कहानियां गढ़ ली होंगी।
कहानियां प्रीतिकर हैं। कहानियां सत्यों के संबंध में कुछ नहीं कहती;
लेकिन गोरख और लोगों के बीच जो भाव घटा होगा, उसके संबंध में कुछ कहती हैं।
गोरख बंगाल गये तो बंगाली हो गये होंगे। ऐसे डूब गये होंगे बंगाल की जीवन-
धारा में कि लोगों को लगे होंगे कि बंगाली हैं।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। अगर मैं जीसस पर बोलता हूं तो ईसाई मुझसे
आकर कहते हैं, क्या आप ईसाई हैं? अगर मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो बौद्धों ने
मुझे कहा है कि क्या आप बुद्ध के अनुयायी हैं? जब मैं नानक पर बोला तो
सिक्खों ने मुझे आकर कहा कि जो हमने कभी नहीं सोचा था, वह अर्थ आपने प्रगट
कर दिया, आप ही सच्चे सिक्ख हैं! मैं जिस पर बोलता हूं उसके साथ तल्लीन हो
जाता हूं उसे बोलने देता हूं अपने से। तो सिक्खों को लग सकता है कि सिक्ख
हूं और बौद्धों को कि बुद्ध हूं ईसाईयों को कि ईसाई हूं।
ऐसा ही लगा होगा। जहां गये होंगे, जहां ठहरे होंगे, जहां उनके पैर पड़े
होंगे, वहीं के लोगों को लगा होगा-अपने हैं। यह उनके प्रेम के कारण लगा
होगा। और इसलिए बात और भी मुश्किल हो गयी तय करनी कि वे कहां पैदा हुए, कब
पैदा हुए। फिर ऐसे व्यक्ति न तो अपने जन्म की चर्चा करते हैं, न अपने
घर-द्वार की चर्चा करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का क्या घर, क्या द्वार? यह
सारा आकाश उनका घर है! यह सारी पृथ्वी उनकी है।
मैं कल ही मेरे खिलाफ किसी हिंदू संन्यासी का लिखा हुआ एक पत्र करंट में
छपा है, वह देख रहा था। उसने सरकार से प्रार्थना की है कि मैं देशद्रोही
हूं मुझ पर अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिये। उसकी बात ठीक है। सरकार को
उसकी बात पर ध्यान देना चाहिये। मुझे देशद्रोही कहा जा सकता है, क्योंकि
देशों में मेरा कोई भरोसा नहीं। न मुझे कोई देश है, न कोई परदेश है, मुझे
यह सारी पृथ्वी अपनी मालूम होती है।
जिस संन्यासी ने यह कहा है… हिंदू मतांधता.. उसे अड़चन होती होगी कि मैं
अपने को हिंदू घोषित क्यों नहीं करता। मैं नहीं हूं! मैं किसी सीमा में
बंधा नहीं हूं। मस्जिद भी मेरी है और मंदिर भी मेरा है और गिरजा भी और
गुरुद्वारा भी। और राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है। मैं तो मानता हूं कि
राष्ट्रों के कारण ही मनुष्य-जाति पीड़ित है। राष्ट्र मिट जाने चाहिए। हो
चुके बहुत राष्ट्रगान, उड़ चुके बहुत झंडे, हो चुकीं बहुत मूढ़ताएं पृथ्वी
पर, अब तो मनुष्य की एकता स्वीकार करो। अब तो एक पृथ्वी और एक मनुष्य.। ये
राष्ट्रीय सरकारें जानी चाहिये। और जब तक ये न जायेंगी तब तक मनुष्य की
समस्याएं हल न हो सकेंगी, क्योंकि मनुष्य की समस्याएं अब राष्ट्रों से बड़ी
समस्याएं हैं।
जैसे आज भारत गरीब है। भारत अपनी ही चेष्टा से इस गरीबी के बाहर नहीं
निकल सकेगा, कोई उपाय नहीं है। भारत गरीबी के बाहर निकल सकता है, अगर सारी
मनुष्यता का सहयोग मिले। क्योंकि अब मनुष्यता के पास इस तरह के तकनीक, इस
तरह का विज्ञान मौजूद है कि इस देश की गरीबी मिट जाये। लेकिन अगर तुम अकड़े
रहे कि हम अपनी गरीबी खुद ही मिटायेगे, तो तुम ही तो इस गरीबी को बनानेवाले
हो, तुम मिटाओगे कैसे? तुम्हारी बुद्धि इसके भीतर आधार है, तुम इसे
मिटाओगे कैसे? तुम्हें अपने द्वार-दरवाजे खोलने होंगे। तुम्हें अपना
मस्तिष्क थोड़ा विस्तीर्ण करना होगा। तुम्हें मनुष्यता का सहयोग लेना होगा।
और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ भी देने को नहीं है। तुम्हारे पास
कुछ देने को है दुनिया को। तुम दुनिया को ध्यान दे सकते हो। अगर अमरीका को
ध्यान खोजना है तो अपने बलबूते नहीं खोज सकेगा अमरीका। उसे भारत की तरफ नजर
उठानी पड़ेगी। मगर वे समझदार लोग हैं; ध्यान सीखने पूरब चले आते हैं। कोई
अड़चन नहीं है उन्हें, कोई बाधा नहीं है।
बुद्धिमानी का लक्षण यही है कि जो जहा से मिल सकता हो ले लिया जाये। यह
सारी पृथ्वी हमारी है। इसको खंडों में बांटकर हमने उपद्रव खड़ा कर लिया है।
आज मनुष्य के पास ऐसे साधन मौजूद हैं कि अगर राष्ट्र मिट जायें, तो सारी
समस्यायें मिट जायें। सारी मनुष्यता इकट्ठी होकर अगर उपाय करे तो कोई भी
समस्या पृथ्वी पर बचने का कोई भी कारण नहीं है।
मगर पुरानी आदतें हैं। हमारा राष्ट्र-सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां
हमारा…..! और इसी तरह की मूढ़ताएं और राष्ट्रों में भी हैं। उनको भी यही
खयाल है। इन्हीं अहंकारों के कारण संघर्ष है। फिर संघर्ष और राष्ट्रों की
सीमाओं के कारण मनुष्य की सारी शक्ति युद्धों में लग जाती है।
तुम्हें जानकर यह हैरानी होगी कि अब हमारे पास इतना युद्ध का सामान
इकट्ठा हो गया है सारी दुनिया में, रूस और अमरीका में विशेषकर, कि एक-एक
आदमी को एक-एक हजार बार मारा जा सकता है! हमारे पास एक हजार पृथ्वियों को
नष्ट करने का साधन उपस्थित हो गया है; एक ही पृथ्वी है हालांकि। अंबार लगे
जा रहे हैं अस्त्र-शस्त्रों के! और किसी भी दिन किसी एक पागल राजनीतिज्ञ की
धुन और यह सारी पृथ्वी धूल का एक ढेर, राख का एक ढेर रह जायेगी।
और राजनीतिज्ञों से पागलपन की अपेक्षा की जा सकती है। और किससे करोगे?
एक राजनीतिज्ञ के पागल होने से इस सारी दुनिया में ऐसा भयंकर उत्पात हो
जायेगा कि तुम्हें सोचने-समझने का मौका भी नहीं मिलेगा। पांच-सात मिनट
लगेंगे सारी दुनिया को राख हो जाने में। खबर भी नहीं पहुंच पायेगी और मौत आ
जायेगी। जहां इतना भयंकर हिंसा का आयोजन हो गया हो, अब पुराने राष्ट्रों
की धारणाएं काम नहीं दे सकतीं। अब खतरा है। इन्हीं राष्ट्रों के कारण ये
अस्त्र-शस्त्र इकट्ठे हो रहे हैं-अपनी रक्षा करनी है..। कहीं दूसरा आगे न
बढ़ जाये, उससे हमें आगे रहना है।
मनुष्य-जाति की अस्सी प्रतिशत क्षमता युद्ध में चली जाती है। यही अस्सी
प्रतिशत क्षमता अगर खेतों में लगे, बगीचों में लगे, कारखानों में लगे, यह
पृथ्वी स्वर्ग हो जाये! जो सपना तुम्हारे ऋषि-महर्षि देखते थे आकाश में
स्वर्ग का, वह अब पृथ्वी पर बन सकता है, कोई रुकावट नहीं। लेकिन पुरानी
आदतें…। यह हमारा देश, वह उनका देश। हमें भी लड़ना है, उन्हें भी लड़ना है।
गरीब से गरीब देश भी अणुबम बनाने की चेष्टा में संलग्न हैं। भूखे मर रहे
हैं, मगर अणुबम बनाना है! भारत जैसे देश के पीछे भी वही भाव है गहरे में।
भूखे मर जायें, मगर अपनी शान रखनी है!
मैं तो राष्ट्रों में मानता नहीं। अगर मेरी सुनी जाये तो मैं तो कहूंगा
कि भारत को पहला देश होना चाहिए जो राष्ट्रीयता छोड़ दे। यह अच्छा होगा कि
कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि और गोरख का देश राष्ट्रीयता छोड़ दे और कह दे कि हम
अंतर्राष्ट्रीय भूमि हैं। भारत को तो संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बन जानी
चाहिए। कह देना चाहिए, यह पहला राष्ट्र है जो हम संयुक्त राष्ट्र संघ को
सौंपते हैं-सम्हालो! कोई तो शुरुआत करे…। और यह शुरुआत हो जाये तो युद्धों
की कोई जरूरत नहीं है। ये युद्ध जारी रहेंगे, जब तक सीमाएं रहेंगी। ये
सीमाएं जानी चाहिये।
तो ठीक ही कहते हो, कह सकते हो मुझे देशद्रोही-इन अर्थों में कि मैं
मानव-द्रोही नहीं हूं। लेकिन तुम्हारे सब देश-प्रेमी मानव-द्रोही हैं।
देश-प्रेम का अर्थ ही होता है मानव-द्रोह। देश-प्रेम का अर्थ होता है खंडों
में बांटो। तुमने देखा न, जो आदमी प्रदेश को प्रेम करता है वह देश का
दुश्मन हो जाता है। और जो जिले को प्रेम करता है वह प्रदेश का भी दुश्मन हो
जाता है। मैं दुश्मन नहीं हूं देश का, क्योंकि मेरी धारणा अंतर्राष्ट्रीय
है। यह सारी पृथ्वी एक है। मैं बड़े के लिये छोटे को विसर्जित कर देना चाहता
हूं।
और इन छोटे-छोटे घेरों ने, बागुडों ने मनुष्य को बहुत परेशान किया है।
तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गये हैं। और पहले तो ठीक था कि
तीर-कमान से चल रहे थे युद्ध, चलते रहते, कोई हर्जा नहीं था। थोड़े-बहुत लोग
मरते थे तो कोई अड़चन नहीं हो जाती थी। अब युद्ध समग्र युद्ध है। अब यह
पूरी मनुष्य-जाति की आत्महत्या है। अब सब जगह हिरोशिमा बन सकता है-किसी भी
दिन, किसी भी क्षण..। इस युद्ध की विभीषिका को समझो और इसमें जितनी ऊर्जा
जा रही है, वह सोचो। यही ऊर्जा सारी पृथ्वी को हरियाली से भर सकती है, वैभव
से भर सकती है। मनुष्य पहली दफा आनंदमग्न हो नाच सकता है, प्रभु के गीत गा
सकता है, ध्यान की तलाश कर सकता है।
लेकिन यह नहीं होगा। ये तुम्हारे तथाकथित देशप्रेमी, ये राष्ट्रवादी……..।
राष्ट्रवाद महापाप है। इस राष्ट्रवाद के कारण ही दुनिया में सारे उपद्रव
होते रहे। मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। मैं तो सारी सीमाएं तोड़ देना चाहता
हूं। इस पृथ्वी पर जिन लोगों ने भी परमात्मा की छोटी-सी झलक पाई है उनकी
कोई सीमाएं नहीं हैं। वे किसी देश, किसी जाति, किसी वर्ग, किसी संप्रदाय,
किसी वर्ण के नहीं होते। वे सब के हैं, सब उनके हैं।
फिर इस तरह के व्यक्ति, गोरख जैसे व्यक्ति, इस बात की चिंता ही नहीं
लेते कि कब हम पैदा हुए, इसकी बात करें, किस घर में पैदा हुए, इसकी बात
करें, किस गांव में पैदा हुए, इसकी बात करें। ये व्यर्थ की बातें हैं,
क्योंकि गोरख जानते है-न हम कभी पैदा हुए और न हम कभी मरेंगे। ये तो
देहवादियो की बातें हैं। ये तो जिनका शरीर से मोह और तादात्म्य है, उनकी
बातें हैं। गोरख जैसे व्यक्ति तो उसे जान लिये हैं जो न कभी पैदा होता है, न
मरता है; न मर सकता है, न पैदा हो सकता है। अजन्मे को, अनादि को, अनंत को
जान लेने के बाद कौन जन्म की बात करे? किसकी बात करनी है?
इसलिए इस तरह के लोग बात नहीं करते। स्वभावत: उनके पीछे बहुत-सी कथाएं
तो छूट जाती हैं, लेकिन सुनिश्चित तथ्य नहीं छूट जाते। और ऐसे लोग इतने
विराट हृदय होते हैं कि किन्हीं भी तरह के विशेषणों को अंगीकार नहीं करते।
क्योंकि विशेषण तो अज्ञान का ही सूचक है। जो कहता है मैं हिंदू हूं मुसलमान
हूं ईसाई हूं-यह अज्ञानी का लक्षण है। जहां प्रकाश जला वहां विशेषण गये;
विशेषण तो अंधेरे में ही जीते हैं। वहां तो विशेषणशून्य अनिर्वचनीय का
आविर्भाव हो जाता है। इस कारण नहीं कुछ पक्का पता चलता, कहां पैदा हुए कब
पैदा हुए।
लेकिन कुछ लोग इस खोजबीन में लगे रहते हैं। कुछ लोग अपनी जिंदगी इसी में
लगाते हैं। इसी तरह के लोग विश्वविद्यालयों में शोध करते हैं, बड़े
शोधकर्ता हो जाते हैं। उन्हें उपाधियां मिलती हैं-पी एच. डी. और डी लिट और
डी फिल। और उनका बड़ा सम्मान होता है। उनका काम क्या है? उनका काम यह है कि
वे तय करते हैं कि गोरखनाथ कब पैदा हुए थे। कोई कहता है दसवीं सदी के अंत
में, कोई कहता है म्यारहवीं सदी के प्रारंभ में। इस पर बड़ा विवाद चलता है।
बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के ज्ञानी सिर गपा कर खोज में लगे रहते हैं
शास्त्रों की, प्रमाणों की, इसकी, उसकी। उनकी पूरी जिंदगी इसी में जाती है।
इससे बड़ा अज्ञान और क्या होगा?
गोरख कब पैदा हुए, इसे जानकर करोगे क्या? इसे जान भी लिया तो पाओगे
क्या? गोरख न भी पैदा हुए हों, यह भी सिद्ध हो जाये, तो भी क्या फायदा है?
हुए हों, न हुए हों, अर्थहीन है। गोरख ने क्या जीया उसका स्वाद लो।
इसलिए तुम्हारे विश्वविद्यालय ऐसी व्यर्थता के कामों में संलग्न हैं कि
बड़ा आश्चर्य होता है कि इन्हें विश्वविद्यालय कहो या न कहो। इनका काम ही…
तुम्हारे विश्वविद्यालयों में चलने वाली जितनी शोध है, सब कूड़ा-करकट है।
मैं एक जगह बोल रहा था। एक बहुत बड़े शोधकर्ता, बड़े पंडित खड़े हुए और
उन्होंने मुझसे पूछा कि आप सिर्फ मेरे एक प्रश्न का जबाव दे दें कि बुद्ध
और महावीर में उम्र में कौन बड़ा था। दोनों समसामयिक थे। क्योंकि मैं इसी पर
तीस साल से शोध कर रहा हूं।
मैंने उनकी तरफ बड़े दया- भाव से देखा। मैंने कहा, तुम्हारे तीस साल गये।
अब बुद्ध उम्र में बड़े थे कि छोटे थे, इससे क्या सार? नहीं उन्होंने कहा
कि इतिहास को जानकारी होनी चाहिए। मैंने कहा, तुमने पक्का भी कर दिया कि
बुद्ध बड़े थे या महावीर बड़े थे, तुम्हें क्या मिलेगा? और इतिहास जो पढ़ेंगे
उन्हें क्या मिलेगा? और तीस साल तुमने अपनी जिंदगी के गंवा दिये! और लोग
सोचते हैं कि तुम एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य में लगे हो।
कभी-कभी तथाकथित ज्ञान के नाम पर ऐसी मूढ़ताएं चलती हैं कि अगर तुम गौर न
करो तो तुम्हें खयाल ही न आयेगा। बुद्ध के अंतरतम में उतरो, महावीर के
अंतरतम में उतरों, तो तुम पाओगे वहां दो व्यक्ति भी नहीं हैं-एक ही है।
वहां एक ही निरभ्र आकाश है, एक ही शून्य संगीत है, एक ही आनंद-उत्सव है।
झेन फकीर ठीक कहते हैं कि बुद्ध हुए ही कहां। बुद्ध को माननेवाले लोग
हैं, कहते हैं बुद्ध हुए ही कहां, कभी नहीं हुए, सब व्यर्थ की बातें हैं।
रोज बुद्ध की पूजा करते हैं और कहते हैं, बुद्ध कभी हुए नहीं, सब झूठी
बातें हैं। क्या प्रयोजन होगा झेन फकीरों का? वे यही कह रहे हैं कि कहो
हुए, तो बस चले कुछ लोग खोजने कि कब हुए, किस तारीख में हुए। इसी में वे
समय गंवा देंगे। इसलिए हम कहते हैं, हुए ही नहीं, झंझट छोड़ो। लेकिन बुद्ध
के भीतर जो घटा है वह जरूर घटा है। किसके भीतर घटा है यह बात महत्वपूर्ण
नहीं है। उनका नाम गौतम था कि कुछ और था, उनके पिता यह थे कि वह थे-इस सब
से कोई प्रयोजन नहीं है।
बुद्ध के भीतर कुछ घटा है। वृक्ष के तले बैठे हैं एक सुबह। वे जैसे सांझ
बैठे थे वैसे ही नहीं उठे, कुछ नया आदमी उठा। वही असली जन्म है, उसको ही
जन्म कहो। और उसका तिथि, दिवस, माह से, वर्ष से कोई संबंध नहीं है। एक क्षण
ऐसा आया जब विचार शात हो गये, शून्य हो गये। चेतना शुद्ध दर्पण बनी। ऐसे
ही तुम्हारी चेतना बने, इसकी प्रक्रिया में समय लगाओ। अच्छा यही है कि तुम
ही बुद्ध हो जाओ। अच्छा यही है कि तुम्हारे भीतर गोरख का नाद गंजे। बजाय
तुम गोरख के इतिवृत्त में जाओ, अच्छा हो गोरख के अंतस में जाओ।
इसलिए इस देश ने ठीक ही किया कि व्यर्थ बातों का विचार नहीं किया,
व्यर्थ बातों को बीच में लाये ही नहीं। जो सार-सार है उतना कहा। क्योंकि
आदमी ऐसा उपद्रवी है, ऐसा अज्ञानी है कि जरा-सा असार हाथ में लग जाये तो
उसे तो सम्हाल कर रख लेता है, और सार को भूल जाता है। इसलिए असार की हमने
बात नहीं की है, सार ही सार की बात की है, कि तुम कुछ भी पकड़ोगे तो सार ही
पकड़ में आयेगा। तुम्हें असार मिले ही न, इसलिए हमने सारा असार मिटा दिया
है, पोंछ डाला है।
हमने जो प्यारी कथाएं गढ़ी हैं, वे जरूरी नहीं है कि हुई हों। होने की
जरूरत भी नहीं है; वे प्रतीक हैं। और प्रतीक काव्यात्मक होते हैं। इतिहास
से उनका संबंध नहीं होता, अंतरात्मा से उनका संबंध होता है। जैसे हमने कहा
कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो बेमौसम फूल खिल गये। अब यह कोई इतिहास नहीं
है, बेमौसम फूल नहीं खिलते कभी। हमने लिखा है कि जब बुद्ध जंगल से निकलते
थे, अगर किसी सूखे वृक्ष के नीचे बैठ जाते तो उसमें हर पत्ते आ जाते। ऐसा
कहीं नहीं होता है। बुद्ध के ध्यान को, बुद्ध की समाधि को देखकर वृक्ष में
हरे पत्ते आ जाएं, यह इतिहास नहीं है। मगर जहां बुद्ध के चरण पड़ते हैं,
वहां हरियाली फैलती है, इतना सूचक है। वहां जीवन हरा होता है। वहां जीवन
में नयी उमंग आती है, नया प्रसाद बरसता है। बुद्ध एक वर्षा हैं अमृत की, इस
बात को कहने का यह काव्यात्मक ढंग हुआ, इससे ज्यादा नहीं।
जीसस को सूली लगी और सूली के बाद वे पुनरुज्जीवित हुए। अब यह
पुनरुज्जीवित होना कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, यह पुनरुज्जीवित होना एक गहन
प्रतीक है, काव्य है। इतना ही कहा जा रहा है कि जीसस जैसे व्यक्ति की
मृत्यु हो ही नहीं सकती। मृत्यु तो अज्ञानियों की होती है। जिन्होंने मान
रखा है कि हम देह हैं, वे मरते हैं। जिन्होंने जान लिया कि हम देह के भीतर
अदेही हैं, वे कैसे मर सकते हैं?
उनकी तो सूली से भी नये जीवन का ही प्रारंभ होता है। उनकी तो सूली भी
सिंहासन है। उनकी मृत्यु नहीं होती। वे तो जीते अमृत में हैं, मरते अमृत
में हैं। उनका अमृत जारी रहता है, अमृत की धारा बहती रहती है… देह में तो
देह में, देह में नहीं तो देह के बाहर।
लेकिन लोग इनको ऐतिहासिक तथ्य सिद्ध करने की कोशिश में लग जाते हैं। और
तब अड़चन हो जाती है। मैंने तुमसे कुछ ही दिन पहले कहा कि महावीर को काटा
सर्प ने तो दूध निकला। अब ऐसे जैन हैं जो यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं
कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि दूध निकला। वे खुद भी नासमझी करते हैं और दूसरों
को भी नासमझी करने का आवाहन देते हैं। इतना ही जाहिर है कि दूध प्रतीक है
प्रेम का। जब मां के पेट में बच्चा आता है तो उसके प्रेम के आविर्भाव में
उस बच्चे के पोषण के लिए मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। मां बहने लगती है
बच्चे के लिए दूध की धारा में। मां के दूध में बच्चे को जीवन मिलने लगता
है। प्रेम जीवनदायी है! बस इतना ही प्रतीक है इस कथा में कि सांप ने भी
काटा महावीर को तो भी महावीर के हृदय में करुणा ही है, प्रेम ही है। इसको
कैसे कहें कविता में! इसको कविता में ऐसे कहा कि काटा तो महावीर की देह से
खून नहीं निकला, दूध निकला। निकलना था खून, निकला दूध। यह तो कविता है।
प्यारी कविता है, अगर कविता की तरह समझो। मगर अगर जिद मानकर बैठ जाओ कि यह
कोई वैज्ञानिक वक्तव्य है तो तुमने मूढ़ता कर ली।
हमने उन सारे अपूर्व पुरुषों के पास कहानियां गढ़ी हैं। वे सब कहानियां
बड़ी प्रीतिकर हैं। उन कहानियों को तुम इशारे समझना। सही-गलत का संबंध ही
नहीं है। उनसे कुछ इंगित…। और इंगित पकड़ में आ जाये, कहानियां पीछे छूट
जायेंगी। तुम एक यात्रा पर संलग्न हो जाओगे।
फिक्र छोड़ो इसकी कि गोरख कहां पैदा हुए, कब पैदा हुए। यह काम पंडितों पर
छोड़ दो। आखिर उनको बेचारों को भी कुछ काम चाहिए न! यह शोधकर्ताओं पर छोड़
दो, नहीं तो कौन उनको पी एच. डी. देगा। गोरख ने बड़ी कृपा की, लिखकर नहीं
गये। लिख जाते तो न मालूम कितने लोगों की डाक्टरेट रह जाती! यह भी उनकी
अनुकंपा है, कुछ खबर नहीं दे गये, कहां पैदा हुए। न मालूम कितने लोग संलग्न
हैं, इसी काम में संलग्न हैं। मूढ़ों को कुछ तो चाहिए संलग्न होने के लिए!
समझदार इन बातों में न उलझें। गोरख का संदेश पहचानो। गोरख के सूत्रों को
हृदय में उतरने दो। हुए हों गोरख तो ठीक, न हुए हों तो चलेगा, सूत्र
महत्वपूर्ण हैं। गोरख के होने न होने से सूत्रों की महत्ता में कोई भेद
नहीं पड़ता।
क्या तुम सोचते हो कृष्ण हुए हों तो गीता ज्यादा मूल्यवान हो जायेगी और
कृष्ण न हुए हों तो गीता का मूल्य खो जायेगा? क्या पागलपन की बात करते हो?
आइंस्टीन हुए हों तो सापेक्षवाद का सिद्धात ज्यादा मूल्यवान हो जायेगा?
आइंस्टीन के होने से सापेक्षवाद के सिद्धात में कुछ बल मिलता है? कोई बल
नहीं मिलता। आइंस्टीन हुए हों कि न हुए हों, सापेक्षवाद का सिद्धात अपने-आप
में सबल है। उसकी भित्ति उसमें ही है। किसने उसे जन्म दिया, यह बात गौण
है।
तुम्हें पता है किसने पहली दफा आग जलाई? वैज्ञानिक कहते हैं कि दुनिया
का सबसे बड़ा आविष्कार है आग का; किसने सबसे पहले जलाई, हमें कुछ पता नहीं।
हो गये होंगे कोई कम-से-कम पचास हजार साल या उससे भी ज्यादा, जब किसी आदमी
ने आग जलाई होगी। उसका नाम तो किसी को भी पता नहीं है। लेकिन उसके नाम के न
होने से क्या तुम आग पर रोटी नहीं सेंक लेते हो? क्या जब सर्दी लगती है तो
आग के पास बैठकर ताप नहीं लेते हो? उससे क्या लेना-देना है कि अ था, कि ब
था, कि स था, काला था कि गोरा था, हिंदुस्तान में घटी बात कि अफ्रीका में
घटी बात? कहां सबसे पहले आग जली, किसने जलाई, क्या भेद पड़ता है? हम जानते
हैं कि आग बहुमूल्य है अपने-आप में।
ऐसी ही साधना की प्रक्रियाएं हैं-आग हैं, जलती आग; अगर हिम्मत हो, छलांग लगा लो।
मरौ वे जोगी मरौ मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरष दीठा।।
उसी आग में तुम भी कूद जाओ, जिसमें गोरख कूद गये। उसी निर्विचार की
अग्नि में तुम भी भस्मीभूत हो जाओ। और तुम्हारी भस्मियों से उठेगा एक नया
रूप, एक नया आलोक, एक नया जीवन, जो शाश्वत है।
मरौ है जोगी मरौ
ओशो
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