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Thursday, October 29, 2015

ओऽऽम्!!

एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था; आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि ‘कभी आगरा से गुजरें—और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं। और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।’ 
 
तो मैंने कहां, ‘ठीक।’

उन्हें खबर कर दी। जानता तो नहीं था; पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आये थे, उन्होंने आते से ही कहां कि ‘बस, जल्दी करिये! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जायें!’

मैंने पूछा कि ‘आप ही मुझे पत्र लिखते थे?’

उन्होंने. कहां कि ‘नहीं। पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं।’

मैंने कहां, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं तुम आ गये।’

उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गये! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोले, ‘ओऽऽम्। मैंने पत्र लिखा था’। उन्होंने कहां’ और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिये, बैठिये मेरे तांगे में!’

छोटे भाई ने कहां कि ‘देखिये, मैंने पहले ही कहां था कि जल्दी करिये। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस, मुश्किल हो जायेगी!’

और बड़ा भाई था भी पहलवान छाप! छोटे भाई थे भी दुबले पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतारकर मेरा भी हाथ पकड़कर अपने तांगे में बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले ‘ओऽऽम् कहते थे! मेरा हाथ पकड़कर उतारा तो ओऽऽम्! मेरा बिस्तर उतारा तो ओऽऽम्! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम! क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले ओऽऽम्!

और वही हुआ।

उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बडे भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहां, ‘ओऽऽम्। आइये भीतर!’

छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहां कि ‘देखिये, आप इतनी कृपा करिये कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिये, वहां मैं भी आ सकता हूं बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!’ मैंने कहां, ‘यह बात तो ठीक है।’

लेकिन बड़े भाई ने कहां, ‘ओऽऽम्!’ और सामान उठाकर वे तो अपने घर में ही ले गये!

बड़े भाई फोटोग्राफर थे, सो उन्होंने कहां, ‘इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आयेगा बार बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइये, और भोजन करिये; यह करिये, वह करिये; मैं .आपकी तसवीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।’

मैंने कहां, ‘जैसी मरजी! अब आपके हाथ में हूं छह घंटे जो करना हो करिये!’

तसवीर भी क्या उतारी…! हर चीज में ओऽऽम्! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगायें तो ओऽऽम्! प्लग निकालें, तो ओऽऽम्! मुझे कुर्सी पर बिठा लें तो ओऽऽम्! कैमरा घुमायें तो ओऽऽम्! प्लेट लगायें तो ओऽऽम्! ओऽऽम् से ही सब चीज शुरू हो!

एक कंघी ले आये और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, ‘ओऽऽम्!’

मैंने कहां, देखें, मैं जैसा हूं तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!’ एकदम नाराज हो गये। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहां, ‘जैसी मरजी!’ओऽऽम् कहकर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिये!

जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गये। उनको भी खबर मिल गयी कि मैं आया हूं तो आकर बैठ गये। यह फोटो उतर जाये, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहां कि, ‘बाई, एक गिलास पानी…!’

गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ‘ओऽऽम्! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती, स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना!’

फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ‘ओऽऽम्। यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!’

ओम भी कहते जाते हैं!

ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम् का उच्चार भी करते रहेंगे और ‘ओम् के भीतर क्या क्या नहीं भरा होगा!

क्या क्या नहीं उपद्रव होंगे!

आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा ठीक विपरीत।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

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