सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है : मूल्य
बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे
हैं, उनका मूल्य भी धन है कितना इकट्ठा कर लें। और फिर कुछ लोग हैं जो धन
छोड्कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है की कितना
छोड़ दें!
तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिरला को और
टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को, और बुद्ध को नापते हो,
तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है। जैन शास्त्र वर्णन करते हैं :
इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल सब महावीर ने छोड़ दिया! यह
हाथी घोड़ों की गिनती, ये धन के अम्बार उनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते
हैं, कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई
छोटे मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!
मापदण्ड क्या है?
इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिन्दुओं ने उसे अवतार माना, न बुद्धों
ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी
नहीं होती। सवाल यह है कि छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, ‘हमने एक
लंगोटी छोड़ दी!’ तो वे कहेंगे, ‘भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड्कर और
तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी घोड़े कितने हैं?’
अब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी भविष्य में! तीर्थंकर होने मुश्किल हो
जायेंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इग्लैंड में ही तीर्थंकर हो
सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस, पांच ही राजा बचेंगे दुनिया
में। चार तो ताश के पत्तों के, और एक इग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश
के पत्तों से भी गया बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है;
इंग्लैड के राजा में वह भी नहीं है वह सिर्फ नाम मात्र का है। अब तो
इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार
पैदा हों! भारत में तो असंभव! अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं,
हाथी घोड़े नहीं छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि ‘मैंने एक साइकिल छोड़ दी!’ कम
से कम घोडा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड्कर दावा करोगे तीर्थंकर होने
का! लोग कहेंगे, ‘लाजसंकोच न आयी! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास!’
इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी
है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे छोडने वगैरह
को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन
लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना पीना चल जाये। वह भी
पूरा नहीं चल पाता। उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं।
अनहद में बिसराम
ओशो
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