तुमने उस गधे की बात सुनी? ईसप की कथा है। एक गधे को बीच में खड़ा कर
दिया उसके मालिक ने और दोनों तरफ घास के दो पूले रख दिए। गधा भूखा है।
लेकिन इस पूले की तरफ देखता है तो उस पूले की याद आती है। उस पूले की तरफ
देखता है तो इस पूले की याद आती है। ऐसा बीच में ही खड़ा—खड़ा मर गया। सुनाव
ही न हो पाया। निर्णय ही न हो पाया किस तरफ जाऊं, यह ठीक कि यह ठीक! ऐसे
द्वंद्व में प्राण निकल गए।
तुम जरा देखना, एक तरफ महात्मा खड़े, एक तरफ मौत खड़ी। मौत कहती, जल्दी
करो, भोगो। महात्मा कहता है, ठहरो, भोगना भर नहीं। नहीं तो सदा भुगतोगे।
भोगा कि भुगते। फिर मत कहना। तो भोगने जाओ तो महात्मा खड़ा है, न भोगो तो
मौत खड़ी है। आधे में मृत्यु और आधे में धर्म है जीवन के महक भरे स्वप्न कहां बोऊं मैं नहीं, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं यह जो धर्म है, यह वास्तविक धर्म नहीं है। यह व्रत वाला धर्म है।
वास्तविक धर्म तो तुम्हें नर्क से भयभीत नहीं करता। वास्तविक धर्म तो
भयभीत ही नहीं करता। वास्तविक धर्म तो जीवन के आनंद को तुम कैसे परिपूर्णता
से भोगो, उसके सूत्र देता है। वास्तविक धर्म तुम्हें संसार के भोग से
मुक्त नहीं करता है, संसार में ही कैसे परमात्मा का भोग भी संभव हो सकता
है, इस दिशा में गतिशील करता है। वास्तविक धर्म तुम्हारे जीवन में द्वंद्व
पैदा नहीं करता। वास्तविक धर्म कहता है, तुम्हारा यह जो जीवन है, उस जीवन
की सीढ़ी है। इसमें विरोध नहीं है। दुकान मंदिर की सीढ़ी है। और धन ध्यान की
सीढ़ी है। और शरीर आत्मा का द्वार है। और यह संसार परमात्मा का संसार है।
इसे कुछ ढंग से जीओ, इसे कुछ बोध से जीओ, तो तुम इसी सुख में स्वर्ग को खोज
लोगे। और खयाल रखना, अगर तुम इस सुख में स्वर्ग को नहीं खोज सकते तो
स्वर्ग फिर कहीं भी नहीं है।
मैं तुमसे जिस धर्म की बात कर रहा हूं वह व्रत वाला धर्म नहीं है, बोध
वाला धर्म है। मैं तुम्हें कहीं से भी तोड़ना नहीं चाहता हूं। मैं तुम्हें
परमात्मा से जरूर जोड़ना चाहता हूं लेकिन तुम्हें कहीं से तोड़ना नहीं चाहता
हूं। मैं तुम्हें, तुम जहा हो, उस जगह का ठीक ठीक उपयोग कर लेना सिखाना
चाहता हूं।
एक मित्र मेरे पास आए, बहुत दिन से उन्हें सिगरेट पीने की आदत है। वे
कहने लगे, कैसे छोडूं? मैंने कहा, तुम छोड़ तो रहे हो तीस साल से, अभी भी
अकल नहीं आयी कि तीस साल छोड़ने छोड़ने में बिताए। न पी पाए, न छोड़ पाए। छोड़ो
पंचायत! तो उन्होंने कहा, फिर पीता ही रहूं? बड़े उदास हो गए तीस साल से पी
ही रहे हैं जैसे कि मैं कुछ कसूर कर रहा हूं। यानी वे मुझ पर ही कुछ नाराज
मालूम पड़े। कि आप और ऐसी बात कह रहे हैं! क्योंकि महात्मा से तो बात ऐसी
होनी चाहिए कि छोड़ो, इसी वक्त छोड़ दो, कसम खा लो कि अब कभी न पीएंगे। अरे,
अपना बल खोजो, आत्मबल जगाओ, यह क्या बात है! सिगरेट से हारे जा रहे हो?
आत्मवान बनो, संकल्प पैदा करो, यह क्या बात है! महात्मा से वे ऐसे ही सुनते
रहे होंगे। महात्माओं के पास जाते भी हैं।
ऐसे ही लोग तो जाते हैं महात्माओं के पास किसी को सिगरेट छोड़नी है, किसी
को तमाखू छोड़नी है। यह भी अजीब धंधा है। कोई लोग तमाखू बेचने का धंधा कर
रहे हैं, कुछ लोग तमाखू छुड़वाने का धंधा कर रहे हैं। मगर धंधा वही है। धंधे
में कोई बहुत भेद नहीं है। ये एक ही दुकान में साझीदार मालूम पड़ते हैं।
मैंने उनसे कहा कि देखो, एक काम करो तुम, एक छोटा सा काम करो। यह
धूम्रपान को तुम मंत्र बना लो। जब धुआ भीतर ले जाओ तो कहो, ऊँ और जब धुआ
बाहर लाओ तो कहो, ऊँ वे बोले, क्या मामला! मैंने कहा, यह माला बन जाएगी,
ओंकार का नाद करो। थोड़े हंसे भी! कहा, आप भी क्या बात कह रहे हैं! कहां ऊँ
और कहां धूम्रपान, इसको कहा जोड रहे हैं! मैंने कहा, तुमने मेरी किताब नहीं
पढ़ी संभोग से समाधि की ओर। मैं कुछ भी जोड़ देता हूं। तुम फिकर न करो। तुम
ओंकार का पाठ तो शुरू करो, फिर देखेंगे।
पंद्रह दिन बाद मेरे पास आए, वे कहने लगे, बड़ा गजब हो गया है! पंद्रह
दिन से ओंकार का पाठ कर रहा हूं सिगरेट तो धीरे धीरे गौण हुई जा रही है,
ओंकार का पाठ गहन हुआ जा रहा है। अब तो कभी कभी सिगरेट पीने का खयाल उठता
है तो सिगरेट न पीकर ओंकार का पाठ ही कर लेता हूं। और ऐसा मजा आता है जैसा
सिगरेट में कभी नहीं आया था! मैंने कहा, वह तुम्हारी मर्जी, मैंने तुमसे
छोड़ने को नहीं कहा है।
अगर सिगरेट को भी आधार बनाया जा सके तो क्यों न बना लो? अगर देह भी
द्वार बनती हो तो क्यों न बना लो? अगर संबंध, नाते, रिश्ते भी उस परम की
तरफ ले जाने के लिए सहारा बनते हों तो क्यों न बना लो? अगर परिवार को बिना
छोड़े परमात्मा खोजा जा सकता हो, तो क्या यह उचित न होगा, ज्यादा मानवीय,
ज्यादा धार्मिक, ज्यादा कारुणिक?
नहीं, मैं तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता कहीं से। इसलिए व्रत के मैं पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि व्रत तो प्रक्रिया है जबर्दस्ती आरोपण की। मैं बोध के पक्ष में हूं।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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