महावीर ने कहा है:
जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं।।
- ‘संसार के जरा और मरण के वेगवाले प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और शरण है।’
क्या आप उस प्रकाश के लिए प्यासे हैं, जो जीवन को आनंद से भर देता है?
और, क्या आप उस सत्य के लिए अभीप्सु हैं, जो अमृत से संयुक्त कर देता है?
मैं तब आपको आमंत्रित करता हूं- आलोक के लिए और आनंद के लिए और अमृत के
लिए। मेरे आमंत्रण को स्वीकार करें! केवल आँख ही खोलने की बात है, और आप एक
नये आलोक के लोक के सदस्य हो जाते हैं।
और कुछ नहीं करना है, केवल आँख ही खोलनी है। और कुछ नहीं करना है, केवल जागना है और देखना है।
मनुष्य के भीतर वस्तुत: कुछ बुझता नहीं है- और न ही दिशा ही खो सकती है।
वह आँख बंद किये हो तो अंधकार हो जाता है और सब दिशाएं खो जाती हैं। आँख बंद
होने से वह सर्वहारा है और आँख खुलते ही सम्राट हो जाता है।
मैं आपको सर्वहारा होने के स्वप्न से, सम्राट होने की जागृति के लिए
बुलाता हूं। मैं आपकी पराजय को विजय में परिणत करना चाहता हूं और आपके
अंधकार को आलोक में, और आपकी मृत्यु को अमृत में-लेकिन क्या आप भी मेरे साथ
इस यात्रा पर चलने को राजी हैं?
साधनापथ
ओशो
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