आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर सफुरित होता
है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं ऐसा तुम्हारे भीतर
जो बह रहा है, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है सहज उसे किसी से लेना
नहीं। कोई गुरु उसे दे नहीं सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम
पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए
‘सहज विद्या’ कहा है।
दो तरह की विद्याएं है। संसार की विद्या सीखनी है तो दूसरे से सीखनी
पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे
से सीखनी पड़ेगी। और, कितना ही छू आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं
सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है—बादल
छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!
ऐसे जागृत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का परित्कृरण है ‘ऐसा बोध
होता है। और, जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है तो दिखाई
पड़ता है कि ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है।’
तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो
जाओ, लेकिन अहंकार के सहारे वह हीं हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते
ही तुम केंद्र हो जाते हो। तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जायेगा; लेकिन तुम गलत दिशा में
खोज रहे हो। तुम प्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल
सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता;
क्योंकि तुमने गलत सारथी चुना है। तुमने वाहन गलत चुन लिया है।
अहंकार से
तुम कभी भी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और, निरहंकारी व्यक्ति तख्ता विश्व
का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रगट होता है बोधिवृक्ष के नीचे, सारी
दुनियां परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो
जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा
जीवन मेरा है लेकिन, यह ‘मेरा’ तभी फलित होता हैं, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही
जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव
को; कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो तुम धोखा दे रहे हो।
काफी चल चुके हो। अनेक अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं हो!
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी
कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि ‘सुनो! तेल, पानी,
हवा, पेट्रोल, सब ठीक ठीक हैं न? ‘उस परिचारिका ने कहा कि ‘तुम अपनी जगह
शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं। यह हमारी चिंता है।’ नसरुद्दीन ने
कहा कि ‘फिर बीच में उतरकर धक्का देने के लिए मत कहना।’
मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा, ‘ऐसी बात घटी?’ उसने
कहा, ‘घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। बस का जला हवाई जहाज
में भी चिंता रखता है बीच में उतरकर धक्का न देना पड़े।’ तुम बहुत बार जल
चुके हो। छाछ को भी फूंक फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी
फूंक फूंक कर पीना नहीं सीखा।
जीवन की बड़ी से बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग
कहते हैं कि हम अनुभव से सीखते हैं; लेकिन दिखाई नहीं पडता। कोई अनुभव से
सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो
भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो तो भी कुछ जीवन में गति आए, प्रौढ़ता आए।
वही वही भूलें बार बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।
चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी उसी में घुमते रहते हो चाक की तरह और वह
चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जायेगा। चाक के रुकते
ही तुम पाओगे कि तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम
हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह
विद्या सहज है।
ऐसे जाग्रत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्कुरण है’ ऐसा बोध
होता है। और, इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के
आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है सारा सुख, सारी चिंता; तुम
एक हर्षोन्माद से भर जाते हो; एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे
जीवन में; तुम्हारी श्वांस श्वांस पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती
है किसी अज्ञात के स्रोत से।
वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता। कोई गुरु उसे सिखा
नहीं सकता। लेकिन, गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है। इस
बात को ठीक से खयाल में ले लेना।
उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन परम विद्या के मार्ग
में जो जो बाधाएं है, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह
परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से
केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह तत्वमसि!
वह ब्रह्म तुम ही हो।
सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल, मंजिल
तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के
कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि
संसार को तुमने इतने जोर से पक्का है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे,
उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो इसी क्षण
उपलब्धि है। रुकना चाहो जन्मों जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म जन्म रुक
सकते हो। वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिये। अब और रुकना जरा भी
अर्थपूर्ण नहीं है।
समय पक गया है; अब संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और, डरो
मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ
है वही खोएगा जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।
शिव सूत्र
ओशो
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