जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक
गहरा संतोष, एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव, उसके प्राणों के
रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो
तृप्ति का रस है, वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने
के लिए रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं,क्योंकि वह
तृप्ति, जो क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस
घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है, कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के
मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जियें। और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे, तभी प्रेम की
दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की
दीक्षा है। वह तो ‘टू बी लिविंग’ होने की दीक्षा है। एक पत्थर को भी हम उठाये तो हम ऐसे उठा सकते है। जैसे मित्र को
उठा रहे है। और एक आदमी का हाथ भी हम पकड सकते है, जैसे शत्रु का पकड़े हुए
है। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है। एक आदमी
आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है, जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं
करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्य को। प्रेम से
भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। उस फकीर से जाकर
नमस्कार किया। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिये, जूतों को पटका,
धक्का दिया जोर से दरवाजे को। क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हो। दरवाजे भी खोलता है तो ऐसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो। दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार
किया। उस फकीर ने कहा: नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले
तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग कर आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गये है? दरवाज़ों और जूतों से क्षमा। क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि उनका कोई
व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जाने हो, जैसे उनका कोई
कसूर हो। तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध
करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया,तो पहले जाओ, क्षमा मांग कर आ
जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा। अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था। इतनी सी बात
पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़कर क्षमा
मांगनी पड़ी कि मित्र क्षमा कर दो। जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए,भूल हो
गई, हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला।
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो
पहले तो मुझे हंसी आयी कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं। लेकिन जब मैं
क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ। मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई, जिसकी
मुझे कल्पना तक नहीं थी। कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल
सकती है।
मैं जाकर उस फकीर के पास बैठ गया, वह हंसने लगा। उसने कहां, अब
ठीक है, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया। अब तुम
संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो। क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब
तुम आनंद से भर गये हो।
सम्भोग से समाधी की ओर
ओशो
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