सुना है मैंने कि एक गांव में बड़ी बेकारी के दिन थे। अकाल पड़ा था और लोग
बहुत मुश्किल में थे। एक सर्कस गुजर रहा था गांव से। स्कूल का एक मास्टर
नौकरी से अलग कर दिया गया था। उसने सर्कस वालों से प्रार्थना की कि कोई काम
मुझे दे दो। सर्कस के लोगों ने कहा कि सर्कस का तुम्हें कोई अनुभव नहीं
है। उसने कहा, बहुत अनुभव है। स्कूल सिवाय सर्कस के और कुछ भी नहीं है।
मुझे जगह दे दो। कोई और जगह तो न थी, लेकिन एक जगह सर्कस वालों ने खोज ली,
उसे जगह दे दी गई। और काम यह था कि उसके शरीर पर शेर की खाल चढ़ा दी, पूरे
शरीर पर; और उसे एक शेर का काम करना था। एक रस्सी पर उसे चलना था शेर की
तरह।
चल जाता, कोई कठिनाई न आती। लेकिन जब वह पहले ही दिन बीच रस्सी पर था,
तभी उसे दिखाई पड़ा कि उसके स्कूल के दस-पंद्रह लड़के सर्कस देखने आए हैं और
उसे गौर से देख रहे हैं। नर्वस हो गया। मास्टर लड़कों को देखकर एकदम नर्वस
हो जाते हैं। घबड़ा गया और गिर पड़ा। गिर पड़ा नीचे, जहां कि चार-आठ दूसरे शेर
गुर्रा रहे थे, और चिल्ला रहे थे, और गरज रहे थे, और घूम रहे थे नीचे के
कठघरे में। जब शेरों के बीच में घुसा, गिरा, तो घबड़ा गया। भूल गया कि मैं
शेर हूं। याद आया कि मास्टर हूं। दोनों हाथ ऊंचे उठाकर चिल्लाया कि मरा, अब
बचना मुश्किल है!
जनता उसके उस चमत्कार से उतनी चमत्कृत नहीं हुई थी, रस्सी पर चलने से,
जितनी इससे चमत्कृत हुई कि शेर आदमी की तरह बोल रहा है दोनों हाथ उठाकर!
बाकी एक शेर, जो पास ही गुर्रा रहा था, उसने धीरे से कहा कि मास्टर,
घबड़ा मत। तू क्या सोचता है, तू ही अकेला बेकार है गांव में? घबड़ा मत। तू
अकेला ही थोड़े बेकार है गांव में, और लोग भी बेकार हैं। वे जो चार शेर नीचे
घूम रहे थे, वे भी आदमी ही थे!
हम सबकी हालत वैसी ही है। आप ही झूठा चेहरा लगाकर घूम रहे हैं, ऐसा नहीं
है। आप जिससे बात कर रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिससे मिल रहे हैं, वह
भी घूम रहा है। आप जिससे डर रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिसको डरा रहे
हैं, वह भी घूम रहा है।
आप ही अकेले नहीं हैं, यह पूरा का पूरा समाज, चेहरों का समाज है। इतने
चेहरों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि हमें अपने पर कोई भरोसा नहीं। हम भीतर
हैं ही नहीं। अगर हम इन चेहरों को छोड़ दें, तो हम पैर भी न उठा सकेंगे, एक
शब्द न निकाल सकेंगे। क्योंकि भीतर कोई है तो नहीं मजबूती से खड़ा हुआ, कोई
क्रिस्टलाइज्ड बीइंग, कोई युक्त आत्मा तो भीतर नहीं है। तो हमें सब पहले से
तैयारी करनी पड़ती है।
हमें सब पहले से तैयारी करनी पड़ती है। नाटक में ही रिहर्सल नहीं होता,
हमारी पूरी जिंदगी रिहर्सल है। पति घर लौटता है, तो तैयार करके लौटता है कि
पत्नी क्या पूछेगी और वह क्या जवाब देगा। पत्नी भी तैयार रखती है कि पति
क्या जवाब देगा और किस तरह से उसके जवाबों को गड़बड़ करेगी। सब तैयार है। और
रोज यह हो रहा है, और रोज यह होगा।
जिंदगी में भी रिहर्सल! पहले से तैयार करना पड़ता है कि मैं क्या जवाब
दूंगा। क्या पूछा जाएगा, फिर मैं क्या कहूंगा। फिर क्या बचाव निकालूंगा।
देर तो हो गई है रात घर लौटने में। अब क्या-क्या मुसीबत आने वाली है, वह सब
जाहिर है। वह सब तैयार है।
भीतर हमारे पास कोई ऐसी चेतना नहीं है क्या, जो स्पांटेनियस, सहज हो
सके! जब सवाल उठे, तब जवाब दे सके! और जब मुसीबत आए, तब हमारे भीतर से
उत्तर आ सके! और जब घटना घटे, तब हमारे भीतर से कर्म पैदा हो सके! और जब
जैसी जरूरत हो, हमारे प्राण वैसा कर सकें!
लेकिन हमें भरोसा नहीं है कि भीतर कोई है। हमें तैयारी करनी पड़ती है; चित्त में ही तैयारी करनी पड़ती है।
कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, थिर हो गई जिसकी चेतना, जिसकी लौ चेतना की
ठहर गई, वही केवल मुझे उपलब्ध हो पाता है। जो एक हो गया भीतर, जो
यूनि-साइकिक हो गया, मल्टी-साइकिक नहीं रहा; बहुचित्त न रहे, एक चेतना का
जन्म हो गया; एक विराट चेतना ने उसे सब ओर से घेर लिया–वैसा व्यक्ति मेरे
पास आ पाता है। और वैसे व्यक्ति को कृष्ण ने कहा है ज्ञानी। और वैसे
व्यक्ति को कहा है कि ऐसा व्यक्तित्व पाने में अनेक-अनेक जन्म लग जाते हैं
अर्जुन!
न मालूम कितने जन्मों की यात्रा के बाद आदमी को यह अनुभव उपलब्ध हो पाता
है कि मैं कब तक धोखा देता रहूंगा? मैं आथेंटिक, प्रामाणिक कब बनूंगा? मैं
वही कब घोषणा कर दूंगा जगत के सामने, जो मैं हूं? कब तक मैं छिपाऊंगा? कब
तक मैं प्रवंचना दूंगा? और मैं किसको धोखा दे रहा हूं? सब धोखा अपने को ही
धोखा देना है; सब वंचनाएं आत्मवंचनाएं हैं।
लेकिन अनंत जन्मों के बाद भी याद आ जाए, तो जल्दी याद आ गई। अनंत जन्मों
के बाद भी आ जाए, तो जल्दी आ गई याद। क्योंकि अनंत जन्म हम सबके हो चुके
हैं। वह याद अब तक आई नहीं है। कहीं से कोई पीका नहीं फूटता भीतर से, कि वह
हमें कहे कि उतार फेंको इस सब धोखेधड़ी को, जिसे तुमने जिंदगी बना रखा है।
उतार दो इन नकली चेहरों को; अलग कर दो इनको, जो तुमने पहन रखे हैं। हटा दो
यह सब जाल अपने आस-पास से, जो बेईमानी का है। बेईमानी का, जिसमें कि हम
दूसरों को धोखा दिए जा रहे हैं वह होने का, जो हम नहीं हैं। दूसरे भी हमें
दिए चले जा रहे हैं।
धार्मिक आदमी वह है, जो एक छलांग लगाकर इस सब उपद्रव के बाहर हो जाता है
और जिंदगी जैसी है, उसकी सहज स्वीकृति की घोषणा कर देता है। उस स्वीकृति
के साथ ही भीतर आत्मा युक्त हो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी अपने होने को
अंगीकार कर लिया, जैसा है स्वीकार कर लिया; जैसा है, बुरा-भला, स्वीकार कर
लिया।
इसका यह मतलब नहीं है कि बुरा आदमी अपने को स्वीकार कर लेगा, तो बुरा ही
रह जाएगा। यह बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति, जैसा है, अपने
को स्वीकार कर लेता है, तत्क्षण उसके जीवन में वह क्रांति घटित हो जाती
है, जिसमें सब बुराइयां जल जाती हैं।
बुराइयां बचती हैं चेहरों की आड़ में, नग्नता में कोई बुराई नहीं बच
सकती। जब कोई आदमी प्रकट अपने को, सहज जैसा है, जाहिर कर देता है सब भय
छोड़कर…। क्योंकि सब भय ही तो है कि हम चेहरे लगाए फिरते हैं। डर ही तो है
कि कोई क्या कहेगा, तो हम लगाए फिरते हैं।
संन्यासी मैं उसी को कहता हूं, जो इस बात की घोषणा कर दे जीवन के प्रति
कि अब मैं धोखा नहीं दूंगा अपने चेहरे से; मास्क, कोई मुखौटा नहीं लगाऊंगा।
जैसा हूं, हूं; उसकी खबर कर दूंगा। मैं जैसा हूं, वैसा होने की तैयारी
करता हूं। ऐसा व्यक्ति एक दिन युक्त आत्मा को उपलब्ध हो जाता है।
युक्त आत्मा परमात्मा के साथ एक हो जाती है। यह दूसरी बात इसमें समझने
जैसी है। जो अपने साथ एक हुआ, वह सर्व के साथ एक हो जाता है। जिसने इस भीतर
के एक के साथ एकता बांधी, उसकी बाहर की, विराट यह जो ऊर्जा का विस्तार है,
इससे भी एकता सध जाती है। जो अपने भीतर टूटा है, वही परमात्मा से टूटा
रहता है।
इसलिए भक्त भगवान को जब जानता है, तो भक्त नहीं रहता, भगवान ही हो जाता
है। कोई संधि नहीं बचती बीच में, जरा-सा कोई सेतु नहीं बचता। सब टूट जाता
है। कोई फासला नहीं रह जाता। फासला है भी नहीं। हमने फासला बनाया है, इसलिए
दिखाई पड़ता है। झूठा फासला है। हमारा बनाया हुआ फासला है।
कृष्ण कहते हैं, वह वासुदेव ही हो जाता है।
बड़े हिम्मत के लोग थे। आदमी को भगवान बनाने की इतनी सहज बात! आदमी प्रभु
को भजे और प्रभु ही हो जाए! जो जानते थे, वही कह सकते हैं ऐसा। हमारा मन
मानने को राजी नहीं होता। नहीं होता इसीलिए कि हमने सिवाय अपनी क्षुद्रता
के और कुछ भी नहीं देखा है। हमारे भीतर वह जो विराट का बीज छिपा है, वह
छिपा ही पड़ा है। तो जब भी हम सोचते हैं कि आदमी, और भगवान हो जाएगा, तो
हमें भरोसा नहीं आता। क्योंकि हम अपने भीतर जिस आदमी को जानते हैं, वह
शैतान तो हो सकता है, भगवान नहीं हो सकता।
हम अपने को अच्छी तरह जानते हैं। हमें पक्की तरह पता है कि अगर कोई कहे
कि आदमी शैतान है, तो हमारी समझ में आता है। लेकिन कोई कहे, आदमी भगवान है,
तो समझ में बिलकुल नहीं आता। क्योंकि हमारे पास जो नापने का आयोजन है, वह
अपने से ही तो नापने का आयोजन है। हम अपने से ही तो नाप सकते हैं। और हम जब
अपनी तरफ देखते हैं, तो सिवाय शैतान के कुछ भी नहीं पाते।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं–और सारे धर्मों का यही कहना है–कि वह जो आपको
अपने भीतर शैतानियत दिखाई पड़ती है, वह आप नहीं हैं। वह शैतानियत केवल
इसीलिए है कि जो आप हैं, उसका आपको पता नहीं है। जिस क्षण आपको अपने असली
होने का पता चलेगा, उसी दिन आप पाएंगे कि शैतानियत कहां खो गई! कभी थी भी
या नहीं, या कि मैंने कोई सपना देखा था!
बड़ी शक्ति छोटी शक्ति को पवित्र करने की सामर्थ्य रखती है। लेकिन हमें
बड़े का कोई पता ही नहीं है। हम तो छोटे में ही जीते हैं। हम बड़ी छोटी पूंजी
से काम चलाते हैं। सच बात यह है कि जितनी जीवन ऊर्जा से शरीर चलता है, हम
उतने को ही अपनी आत्मा समझते हैं। और शरीर को चलाने के लिए तो जीवन ऊर्जा
का अत्यल्प, छोटा-सा अंश काफी है। शरीर को चलाने के लिए तो सुई काफी है,
तलवार की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और शरीर जितनी जीवन ऊर्जा से चलता है, उसके
साथ ही हम तादात्म्य कर लेते हैं कि यह मेरी आत्मा है। फिर शैतान पैदा हो
जाता है।
क्षुद्र के साथ संबंध शैतान को पैदा कर देता है; विराट के साथ संबंध
भगवान को पैदा कर देता है। संबंध पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। अगर
आपने क्षुद्र से संबंध बांधा, तो शैतान। अगर विराट से संबंध बांधा, तो
भगवान। आप वही हो जाते हैं, जिससे आप संबंध बांधते हैं; वही हो जाते हैं,
जिसके साथ जुड़ जाते हैं।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह वासुदेव ही हो जाता है। वह मैं
ही बन जाता है। जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः
गीता दर्शन
ओशो
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