‘श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन क्यों नहीं होगा?’
हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम श्रद्धा करेंगे या अश्रद्धा करेंगे। हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम किसी को प्रेम करेंगे या घृणा करेंगे। तटस्थ हम हो ही नहीं सकते। जो श्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत, जो अश्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत है। शास्त्र का ध्यान तटस्थ होकर करना होगा। तटस्थ होकर ही कोई अध्ययन हो सकता है। श्रद्धा का अर्थ हैः आप पक्ष में पहले से मान कर बैठ गए, पक्षपात से भरे हैं। अश्रद्धा का अर्थ हैः आप पहले से ही विपरीत मान कर बैठ गए, आप पक्षपात से भरे हैं। पक्षपातपूर्ण चित्त अध्ययन क्या करेगा? पक्षपातपूर्ण चित्त तो पहले से पक्ष तय कर लिया। वह शास्त्र में अपने पक्ष के समर्थन में दलीलें खोज लेगा और कुछ नहीं करेगा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई अध्ययन कर सकता है। इसलिए मुझे श्रद्धा भी व्यर्थ मालूम होती है, अश्रद्धा भी व्यर्थ। असल में श्रद्धा अश्रद्धा दोनों ही अश्रद्धाएं हैं।
एक आदमी ईश्वर पर श्रद्धा करता है, एक आदमी ईश्वर पर अश्रद्धा करता है। असल में अगर हम गौर से देखें, तो उनमें एक ईश्वर के होने पर श्रद्धा करता है, एक ईश्वर के न होने पर श्रद्धा करता है। वे दोनों ही श्रद्धाएं हैं। अश्रद्धा भी श्रद्धा ही है--विपरीत श्रद्धा है। इसलिए न तो श्रद्धा और न अश्रद्धा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई सम्यक अध्ययन कर सकता है। हमारे इस जगत में वैसा सम्यक अध्ययन बहुत कम लोग करते हैं। परिणाम में भी कुछ उपलब्ध नहीं होता।
दूसरी बात उन्होंने कहीः ‘शास्त्र के अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं।’
जिन्होंने भी पूछा है, वे शायद पांडित्य को ज्ञान समझ रहे हैं। शास्त्र के अध्ययन से पांडित्य उपलब्ध होगा, ज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। ज्ञान उपलब्ध नहीं करना है, ज्ञान तो हमारा स्वरूप है। शास्त्र से स्वरूप का कैसे पता चलेगा? और अगर शास्त्र से स्वरूप का पता चल जाता, तो शास्त्र अध्ययन करवा देना बहुत कठिन बात नहीं है, आत्म-ज्ञान बहुत आसान हो जाता। दुनिया में ऐसे लोग हुए जिन्होंने कोई शास्त्र नहीं पढ़े और आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हुए। रामकृष्ण थे या ईसा थे। ये कुछ पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, लेकिन इन्हें ज्ञान उत्पन्न हुआ। और दुनिया में ऐसे पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ है, जिनका चित्त पूरा शास्त्र से भरा हुआ है और उन्हें आत्म-ज्ञान का कोई पता भी नहीं है।
शास्त्र के अध्ययन से आत्म-ज्ञान का कोई संबंध नहीं है। आत्म-ज्ञान का संबंध साधना से है, अध्ययन से नहीं है। आत्म-ज्ञान का संबंध...और ज्ञान की नहीं कह रहा--इंजीनियरिंग पढ़नी हो, डाक्टरी पढ़नी हो, तो शास्त्र-ज्ञान से हो जाएगा। पर के संबंध में कोई सूचना पानी हो, शास्त्र से हो जाएगी। स्व के संबंध में कोई बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्म-ज्ञान तो विचार के छूटने से होगा। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क से भर देंगे।
जैसे सोवियत रूस है, उन्होंने चालीस वर्षों से अपने बच्चों को ईश्वर और आत्मा विरोधी शास्त्र पढ़ाए। चालीस वर्षों में सोवियत रूस के बीस करोड़ लोग--ईश्वर और आत्मा नहीं है, ऐसा उनके ज्ञान हो गया। चालीस वर्ष के प्रचार प्रोपेगेंडा ने सोवियत रूस में यह स्थिति पैदा कर दी कि बीस करोड़ लोगों को यह ज्ञान हो गया कि आत्मा और ईश्वर नहीं है। इसको ज्ञान कहिएगा? इसको ज्ञान नहीं कह सकते। यह केवल विचार का परिपक्व कर देना हो गया एक पक्ष में।
और आप सोचते हैं, आपको आत्मा का ज्ञान हो गया है, तो आप भी गलती में हैं। आपका मुल्क भी पांच हजार वर्ष से प्रचार कर रहा है कि आत्मा है, आत्मा है, ईश्वर है। उस प्रोपेगेंडा से आप प्रभावित हैं। एक प्रोपेगेंडा से वे प्रभावित हैं। एक प्रचार उनके चित्त में बैठ गया, एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है। दोनों ही प्रचार हैं। प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता। मेरा मानना है, अगर उनको सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ देना पड़ेगा। आत्म-सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ना पड़ेगा। प्रचार प्रभावित है हमारे ऊपर। सब बाहर के प्रभाव छोड़ देने होंगे। उस निष्प्रभाव स्थिति में जो स्वयं में भीतर है उसका जागरण होता है। प्रभाव नहीं, क्योंकि प्रभाव तो बाह्य है। प्रभाव का अभाव, उसमें स्वयं का बोध अनुभव होता है।
आत्म-ज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान शब्द से नहीं, निःशब्द से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान विचार से नहीं, निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्म-ज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं, निर्विकल्प समाधि में, समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्म-ज्ञान नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्म-ज्ञान देता है। मैं समझता हंू मेरी बात समझ में आई होगी।
जीवन आलोक
ओशो
No comments:
Post a Comment