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Sunday, March 6, 2016

त्रिशंकु

बचपन को फिर से पाना पड़ता है एक बार खो कर। बच्चे सभी निर्दोष होते हैं। लेकिन निर्दोषता जाएगी, कपट आएगा, चालबाजी आएगी, चालाकी आएगी, बेईमानी आएगी, पाखंड आएगा, सब उपद्रव खड़े होंगे, पूरे नरक से गुजरना होगा। उससे गुजरकर ही निखार है। जैसे स्वर्ण निखरता है आग से गुजरकर। ऐसे ही हम निखरते हैं अहंकार से निकल कर ।

 हां, सोने को आग में ही मत पड़े रहने देना। नहीं तो निखर कर भी क्या सार होगा। जब सोना निखर जाए, कूड़ा कचरा जल जाए, तो निकाल लेना सोने को बाहर। अहंकार आग है, प्रज्वलित अग्नि है, धूं धूं कर जल रहे हो तुम एक चिता की भांति। न तो पूरे जल पाते हो, कि पूरे जल जाओ, कि शून्य हो जाओ तो परमात्मा मिल जाए, न पूरे बुझ पाते हो, कि पूरे बुझ जाओ तो कम से कम प्राकृतिक हो जाओ। धुंधुआते हो। न पूरे जलते, न पूरे बुझते, बस धुआं धुआं होते हो।

बीच में अटके हो, त्रिशंकु हो गए हो, वही अड़चन है, वही पीड़ा है।


या तो गिरकर पशु हो जाओ, तो प्राकृतिक हो जाओगे। बहुत लोग वह उपाय करते हैं। हालांकि वह उपाय क्षणभंगुर है। क्योंकि जीवन का एक महानियम है : जो पा लिया गया, उसे तुम खो नहीं सकते। जो जान लिया गया, उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। जो अनुभव में आ गया, उसे पोंछा नहीं जा सकता। हां, उसके पार जा सकते हो, पीछे नहीं लौट सकते। समय की धार में पीछे लौटने का उपाय ही नहीं।


राम दुआरे जो मरे 


ओशो 

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