एक जैन मुनि से मेरा मिलना हुआ, उन्होंने अपनी एक कविता सुनाई। कविता
थी, कविता की दृष्टि से बड़ी अच्छी थी, मगर मुनि के मुंह से ठीक नहीं थी।
हालांकि उनके भक्तों ने बड़े सिर हिलाए। क्योंकि साधारणत: कोई भी कहता कि
बात बिलकुल गजब की है, ठीक है, यही तो कहा जाता रहा है सदियों से।
मुनि ने अपनी कविता में कहा था कि तुम रहो अपने राजमहलों में, मेरे लिए
तो तुम्हारे राजमहल मिथ्या हैं। तुम मजा कर लो संसार में, मेरे लिए संसार
तो मिथ्या है। तुम बैठो सिंहासनों पर अपने, मैं तो अपने धूल में ही मस्त
हूं। बिलकुल ठीक। साधारणत: यही कहा जाता है सारे महात्मा यही कहते हैं,
इसमें कुछ नया भी नहीं था। भक्तों ने सिर हिलाया।
मैंने उनसे कहा: अगर यह बात सच ही है कि राजसिंहासन मिथ्या हैं, तो उनका
उल्लेख क्यों? उनकी चर्चा क्यों? अगर राजमहल हैं ही नहीं, तो किसकी बातें
कर रहे हो, कौन राजमहल में रहता है फिर? और मजा यह है कि राजाओं ने कभी
नहीं लिखीं ये कविताएं उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम मजा करो अपनी धूल में,
हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा, धूल में रखा क्या है, सब
मिथ्या है, हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा अपनी फकीरी में,
सब मिथ्या है, हम तो अपने सिंहासन पर ही ठीक! ऐसा किसी राजा ने कभी नहीं
कहा। लेकिन मुनि सदा से कहते रहे हैं।
लगता है मुनि के मन में कहीं छिपी
ईर्ष्या है। मुनि के मन में कहीं छिपी लिप्सा है, वासना है। दिखता तो उसे
भी है कि सोने का महल रहने योग्य है, मजा तो वहां है, लेकिन अब अपने को
झुठला रहा है, अपने को समझा रहा है, लीपापोती कर रहा है, कह रहा है कि क्या
रखा है वहां… यह कविता किसी और को समझाने के लिए नहीं है, यह कविता अपने
को ही समझाने के लिए है कि वहां कुछ नहीं है, सब मिट्टी है, सब पानी के
बबूले हैं अगर पानी के ही बबूले हैं तो इतना भी श्रम क्या करते हो, यह
कविता भी किसलिए लिखी? पानी के बबूलों के निवेदन में यह कविता लिखी जाती
है? जरूरत क्या है? बात खतम हो गई।
कहते हैं संसार माया है। और अगर संसार को माया, मिथ्या कहने वाले
व्यक्ति को कोई स्त्री छू ले तो वह एकदम घबड़ा जाता है! यह घबड़ाहट क्या? जो
है ही नहीं, उसके छूने से इतने क्या घबड़ा गए! इतनी क्या परेशानी हो गई!
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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