एक, जिन्होंने बुद्धि को पकड़ लिया–दार्शनिक, तात्विक। वे बाल की खाल ही
निकालते रहते हैं। तर्क की सूखी रेत उनके जीवन में भर जाती है; सोचते बहुत
हैं, पहुंचते कहीं भी नहीं।
दूसरे हार्दिक लोग हैं गाते बहुत हैं, नाचते बहुत हैं। लेकिन सब
गाना-नाचना विवेकरहित है; विक्षिप्तता के करीब ज्यादा है, विमुक्ति के करीब
नहीं। एक तरह का पागलपन है, एक तरह का नशा है। जिनके पास विवेक नहीं, होश
नहीं, उनके लिए धर्म, हृदय एक तरह की शराब है।
फिर तीसरे तरह के लोग हैं, जिन्होंने दोनों का उपयोग कर लिया; और उपयोग करके दोनों के पार हो गए।
उस महा अतिक्रमण की आकांक्षा रखो। उस महा अतिक्रमण की अभीप्सा करो। उस तीसरे बिंदु पर पहुंच जाने का लक्ष्य रखो।
सागर में गिरना है गंगा को, तट दोनों छोड़ देने हैं। लेकिन जल्दी मत
करना; सागर तक तो तट के सहारे ही पहुंचना होगा; पहुंचते ही फिर तटों का
त्याग हो सकता है।
भज गोविन्दम मूढ़ मते
ओशो
No comments:
Post a Comment