इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के
और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और
विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।
लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जाने को कभी
लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने
को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे
ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई
उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो और विधवाओं में
थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम
मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।
इसलिए भारत ने बुद्ध को जान, महावीर को, कृष्ण को, पतंजलि को,
कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से
कोई भी आस्तीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से
कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्ठतम
मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था।
उसकी तो परम विद्या में कोई उत्सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्सुकता दूसरी
विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते
है।
पश्चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्योंकि पश्चिम के
बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्चिम
ने सब बिद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है। कि वह
आत्म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज
पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में
कोई नहीं है।
हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव।
उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म विद्या को छोड़कर बाकी सब
विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्म-अज्ञान से पीड़ित
है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।
वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब
संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न
पश्चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने
जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्योंकि और सब पा कर कुछ भी
पाने जैसा नहीं है।
गीता दर्शन
ओशो
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