एक आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और उसने कहा कि मेरी बड़ी मुसीबत है,
मेरी सहायता करें। मैं रात सपना देखता हूं कि हजारों सुंदरियां नग्न मेरे
चारों तरफ नाचती हैं। मनोवैज्ञानिक अपनी कुर्सी से टिका बैठा था, सम्हलकर
बैठ गया। उसने कहा, “यह परेशानी है? अरे पागल! और क्या चाहता है? इसमें
परेशानी कहां है? तू अपना राज बता, कैसे तू यह सपना पैदा करता है? क्या
तेरी फीस है, बोल!’
उस आदमी ने कहा, “परेशानी यह है कि सपने में मैं भी लड़की होता हूं। यही
झंझट है। मुझे किसी तरह सपने में आदमी रहने दो। यही पूछने आया हूं।’
सपनों में सुख मिल जाता है। सपने में तुम कभी सम्राट हुए? जरूर हुए होओगे। कोई कमी नहीं रह जाती।
चीन में एक बड़ा सम्राट हुआ। उसका एक ही लड़का था। वह मरणासन्न पड़ा था। वह
उसके पास तीन दिन से बैठा था, तीन रात से बैठा था। सारी आशा वही था। सारी
महत्वाकांक्षा वही था। फिर झपकी लग गई उसकी; तीन दिन का जागा हुआ सम्राट,
बैठे-बैठे सो गया। उसने एक सपना देखा कि उसके बारह लड़के हैं–एक से एक
सुंदर, बलिष्ठ, प्रतिभाशाली, मेधावी। बड़ा उसका स्वर्ण से बना हुआ महल है।
महल के रास्ते पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं। बड़ा उसका साम्राज्य है। वह
चक्रवर्ती है। तभी बाहर जो बेटा बिस्तर पर पड़ा था, वह मर गया। पत्नी चीख
मारकर चिल्लाई, सपना टूटा और सम्राट ने सामने मरे हुए लड़के को पड़ा देखा।
पत्नी को चीखते देखा। पत्नी जानती थी कि पति को बड़ा सदमा पहुंचेगा। घबड़ा
गई, क्योंकि पति देखता ही रहा। न केवल रोया नहीं, हंसने लगा। पत्नी समझी कि
पागल हो गया। उसने कहा, “यह तुम्हें क्या हुआ? तुम हंस क्यों रहे हो?’
उसने कहा, “मैं हंस रहा हूं इसलिए कि अब किसके लिए रोऊं! अभी सपने में
बारह लड़के थे, बड़े सुंदर थे, यह कुछ भी नहीं! बड़े स्वस्थ, बलिष्ठ थे। जैसे
उनकी मौत कभी आएगी ही न, ऐसे थे। अमृत-पुत्र थे। और बड़ा महल था, यह महल
झोपड़ा है! सोने का बना था। राह पर हीरे-जवाहरात लगे थे। तेरी चीख ने सब
गड़बड़ कर दिया। न तेरा मुझे पता था, न इस बेटे का मुझे पता था; सपने में तुम
ऐसे ही खो गए थे, जैसे अब सपना खो गया। अब मैं सोचता हूं, किसके लिए रोना!
उन बारह के लिए रोऊं पहले कि इस एक के लिए रोऊं? इसलिए हंसी आती है। हंसी
आती है कि रोना व्यर्थ है। हंसी आती है कि वह भी एक सपना था, यह भी एक सपना
है। वह आंख-बंद का सपना था, यह आंख-खुली का सपना है।’
तुम जिसे सुख मान लेते हो, वह सुख मालूम पड़ता है। कई दफा दुख को भी तुम
सुख मान लेते हो, सुख मालूम पड़ता है। पहली दफा जब कोई सिगरेट पीता है तो
सुख नहीं मिलता, दुख ही मिलता है, खांसी आ जाती है, धुआं सिर में चढ़ जाता
है, चक्कर मालूम होता है, घबड़ाहट लगती है। आखिर धुआं ही है–गंदा धुआं है।
उसको भीतर ले जाने से सुख कैसे हो सकता है? लेकिन फिर धीरे-धीरे अभ्यास
करने से…
जिनसूत्र
ओशो
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