महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत दृष्टियां
हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता। अनेक लोग अनेक कामों में लगे
रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज ऐसा करता है; क्योंकि और लोग ऐसा
करते हैं। उसको महावीर कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं,
इसलिए हम भी करेंगे!…सत्य का कोई हिसाब नहीं है–भीड़ का हिसाब है। तो यह तो
भेड़चाल हुई।
दूसरी मूढ़ता को उन्होंने कहा–देवमूढ़ता, कि लोग देवताओं की पूजा करते
हैं। कोई इंद्र की पूजा कर रहा है कि इंद्र पानी गिरायेगा; कि कोई कालीमाता
की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर हो जायेगी। लोग देवताओं की पूजा कर रहे
हैं।
महावीर कहते हैं, देवता भी तो तुम्हारे ही जैसे हैं! यही वासनायें, यही
जाल, यही जंजाल उनका भी है। यही धन-लोलुपता, यही पद-लोलुपता, यही राजनीति
उनकी भी है। तो अपने ही जैसों की पूजा करके, तुम कहां पहुंच जाओगे? जो
उन्हें नहीं मिला है वह तुम्हें कैसे दे सकेंगे?
महावीर कहते हैं कि देवता का अर्थ है: होंगे स्वर्ग में, सुख में होंगे,
तुमसे ज्यादा सुख में होंगे; लेकिन अभी आकांक्षा से मुक्त नहीं हुए।
तो महावीर कहते हैं, पहली मूढ़ता–लोकमूढ़ता; दूसरी मूढ़ता–देवमूढ़ता।
और तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं–गुरुमूढ़ता। लोग हर किसी को गुरु बना
लेते हैं! जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं मालूम पड़ता–गुरु तो होना ही
चाहिए! तो किसी को भी गुरु बना लेते हैं। किसी से भी कान फुंकवा लिए! यह भी
नहीं सोचते कि जिससे कान फुंकवा रहे हैं उसके पास कान फूंकने योग्य भी कुछ
है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके हैं, तो
आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने कहा, “अगर तुम्हें पहले गुरु
मिल चुका है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं।’ वे कहते हैं, “मिला कहां!’
वह तो गांव में जो ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था।
गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर जा सको।
तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति
सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को मानता है, या देवी-देवताओं को
पूजता रहता है। कितने देवी-देवता हैं! हर जगह मंदिर खड़े हैं। हर कहीं भी
झाड़ के नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर, थोड़ी देर में तुम
पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! तुम सिर्फ बैठे रहो दूर
छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही पत्थर रख दिया है और सिंदूर पोत दिया है;
थोड़ी देर में कोई न कोई आकर पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है।
जिन सूत्र
ओशो
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