मुल्ला नसरुद्दीन एक धनपति के घर नौकरी करता था। एक दिन उसने कहा, “सेठ
जी, मैं आपके यहां से नौकरी छोड़ देना चाहता हूं। क्योंकि यहां मुझे काम
करते हुए कई साल हो गए, पर अभी तक मुझ पर आप को भरोसा नहीं है।’ सेठ ने
कहा, “अरे पागल! कैसी बात करता है! नसरुद्दीन होश में आ! तिजोरी की सभी
चाबियां तो तुझे सौंप रखी हैं। और क्या चाहता है? और कैसा भरोसा?’
नसरुद्दीन ने कहा, “बुरा मत मानना, हुजूर! लेकिन उसमें से एक भी चाबी तिजोरी में लगती कहां है!’
जिस संसार में तुम अपने को मालिक समझ रहे हो, चाबियों का गुच्छा लटकाए
फिरते हो, बजाते फिरते हो, कभी उसमें से चाबी कोई एकाध लगी, कोई ताला खुला?
कि बस चाबियों का गुच्छा लटकाए हो। और उसकी आवाज का ही मजा ले रहे हो। कई
स्त्रियां लेती हैं, बड़ा गुच्छा लटकाए रहती हैं। इतने ताले भी मुझे उनके घर
में नहीं दिखाई पड़ते जितनी चाबियाँ लटकाई हैं। मगर आवाज, खनक सुख देती है।
जरा गौर से देखो, तुम्हारी सब चाबियाँ व्यर्थ गई हैं। क्रोध करके देखा,
लोभ करके देखा, मोह करके देखा, काम में डूबे, धन कमाया, पद पाया, शास्त्र
पढ़े, पूजा की, प्रार्थना की–कोई चाबी लगती है?
महावीर कहते हैं, संसार की कोई चाबी लगती नहीं। और जब तुम सब चाबियाँ
फेंक देते हो, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। संसार से सब तरह से वीतराग हो
जाने में ही चाबी है।
जिनसूत्र
ओशो
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