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Sunday, March 13, 2016

सामान्‍य प्रेम

....   संघर्ष के बिना नहीं जी सकता। क्‍योंकि उसमे मन की गति संलग्‍न है। सिर्फ वही प्रेम संघर्ष के बिना जिएगा जो कि मन का नहीं है। लेकिन वह बात ही और है। बुद्ध का प्रेम और ही बात है।

लेकिन अगर बुद्ध तुम्‍हें प्रेम करें तो तुम बहुत अच्‍छा नहीं महसूस करोगे। क्‍यों? क्‍योंकि उसमें कुछ दोष नहीं रहेगा। वह मीठा ही मीठा होगा। और उबाऊ होगा। क्‍योंकि दोष तो झगड़े से आता है। बुद्ध क्रोध नहीं कर सकते। वे केवल प्रेम कर सकते है। तुम्‍हें उनका प्रेम पता नहीं चलेगा। क्‍योंकि पता तो विरोध में विपरीतता में चलता है।

 
जब बुद्ध बाहर वर्षों के बाद अपने नगर वापस आए तो उनकी पत्‍नी उनके स्‍वागत को नहीं आई। सारा नगर उनके स्‍वागत के लिए इकट्ठा हो गया, लेकिन उनकी पत्‍नी नहीं आई। बुद्ध हंसे। और उन्‍होंने अपने मुख्‍य शिष्‍य आनंद से कहा कि यशोधरा नहीं आई, मैं उसे भली-भांति जानता हूं। ऐसा लगता है कि वह मुझे अभी भी प्रेम करती है। वह मानिनी है, वह आहत अनुभव कर रही है। मैं तो सोचता था बाहर वर्ष का लम्‍बा समय है, वह अब प्रेम में न होगी। लेकिन मालूम होता है कि यह अब भी प्रेम में है। अब भी क्रोध में है। वह मुझे लेने नहीं आई, मुझे ही उसके पास जाना होगा।


और बुद्ध गए। आनंद भी उनके साथ था। आनंद को एक वचन दिया हुआ था। जब आनंद ने दीक्षा ली थी तो उसने एक शर्त रखी और बुद्ध ने मान ली। कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा। वह बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था। इसलिए उन्‍हें मानना पडा था। सो आनंद राजमहल तक उनके साथ गया। वहां बुद्ध ने उनसे कहां। कि कम से कम यहां तुम मेरे साथ मत चलो। क्‍योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी। मैं बाहर वर्षों के बाद लौट रहा हूं। और उसे खबर किए बिना यहाँ से चला गया था। वह अब भी नाराज है। तो तुम मेरे साथ मत चलो, अन्‍यथा वह समझेगा कि मैंने उसे कुछ कहने का भी अवसर नहीं दिया। वह बहुत कुछ कहना चाहती होगी। तो उसे क्रोध कर लेने दो, तुम कृपा इस बार मेरे साथ मत आओ।


बुद्ध भीतर गए। यशोधरा ज्‍वालामुखी बनी बैठी थी। वह फूट पड़ी। वह रोने चिल्‍लाने लगी। बकने लगी, बुद्ध चुपचाप बैठे सुनते रहे। धीरे-धीरे वह शांत हुई और तब वह समझी कि उस बीच बुद्ध एक शब्‍द भी नहीं बोले। उसने अपनी आंखें पोंछी और बुद्ध की और देखा।


बुद्ध ने कहा कि मैं यह कहने आया हूं कि मुझे कुछ मिला है, मैंने कुछ जाना है। मैंने कुछ उपल्‍बध किया है। अगर तुम शांत होओ तो मैं तुम्‍हें वह संदेश, वह सत्‍य दूँ, जो मुझे उपलब्‍ध हुआ है। मैं इतनी देर इसलिए रुका रहा कि तुम्‍हारा रेचन हो जाए। बारह साल लंबा समय है। तुमने बहुत घाव इकट्ठे किए होंगे। और तुम्‍हारा क्रोध समझने योग्‍य है। मुझे इसकी प्रतीक्षा थी। उसका अर्थ है कि तुम अब भी मुझे प्रेम करती हो। लेकिन इस प्रेम के पार भी एक प्रेम है, और उसी प्रेम के कारण मैं तुम्‍हें कुछ कहने वापस आया हूं।


लेकिन यशोधरा उस प्रेम को नहीं समझ सकी। इसे समझना कठिन है। क्‍योंकि यह इतना शांत है। यह प्रेम इतना शांत है। कि अनुपस्‍थित सा लगता है।


जब मन विसर्जित होता है तो एक और ही प्रेम घटित होता है। लेकिन उस प्रेम का कोई विपरीत पक्ष नहीं है। विरोधी पक्ष नहीं है। जब मन विसर्जित होता है तब जो भी घटित होता है उसका विपरीत पक्ष नहीं रहता। मन के साथ सदा उसका विपरीत खड़ा रहता है। और मन एक पैंडुलम की भांति गति करता है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

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