शिष्य की बड़ी असमर्थता है धन्यवाद देने में। किन शब्दों में बांधे
धन्यवाद? क्योंकि शब्द भी गुरु के ही दिये हुए हैं। मूक ही निवेदन हो सकता
है। लेकिन फिर भी कहने का कुछ मन होता है। बिन कहे भी रहा नहीं जाता।
तो एक ही उपाय है कि गुरु की प्रतिध्वनि गंजे। जो गुरु ने कहा है, शिष्य
उसे अपने प्राणों में गुजाए। जो गुरु ने बजाया है, शिष्य की प्राण वीणा पर
भी बजे। यही धन्यवाद होगा, यही आभार होगा। गुरु से उऋण होने का कोई उपाय
नहीं है। बुद्ध से उनके शिष्यों ने पूछा है कि इतना आपने दिया है, हम कभी
उऋण होना चाहें तो कैसे? हम चुका कैसे पाएंगे? हम कृतज्ञता कैसे ज्ञापन
करें? तो बुद्ध ने कहा, एक ही काम है, एक ही संभावना है कि जो मैंने
तुम्हें दिया है, जाओ और दूसरों को दो। बांटो। यही एक उपाय है जो सुगंध
गुरु से मिली है, वह बांट दी जाए।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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