एक फकीर हुआ, उस फकीर के पास एक सम्राट गया। सूफी फकीर था। उस सम्राट ने
कहा, मुझे भी परमात्मा से मिला दो। मैं भी बड़ा प्यासा हूं। उस फकीर ने
कहा, तुम एक काम करो। कल सुबह आ जाओ। सम्राट कल सुबह आया। उस फकीर ने कहा,
तुम सात दिन यहीं रुको। यह भिक्षा का पात्र हाथ में लो और रोज गांव में सात
दिन तक भीख मांगकर लौट आना, यहां भोजन कर लेना, यहीं विश्राम कर लेना। सात
दिन के बाद परमात्मा के संबंध में बात करेंगे।
सम्राट बहुत मुश्किल में पड़ा। उसकी ही राजधानी थी। उसकी अपनी ही राजधानी
में भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगना! उसने कहा कि अगर किसी दूसरे गांव
में चला जाऊं तो! उस फकीर ने कहा नहीं, गांव तो यही रहेगा। अगर सात दिन भीख
न मांग सकी तो वापस लौट जाओ। फिर परमात्मा की बात मुझसे मत करना। सम्राट
झिझका तो जरूर, लेकिन रुका। दूसरे दिन भीख मांगने गया बाजार में। सड्कों
पर, द्वारों पर खड़े होकर उसने भीख मांगी। सात दिन उसने भीख मांगी।
सात दिन के बाद फकीर ने उसे बुलाया और कहा, अब पूछो। उसने कहा, मुझे कुछ
भी नहीं पूछना है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि सात दिन भिक्षा का पात्र
फैलाकर मुझे परमात्मा दिखाई पड़ जायेगा। फकीर ने कहा, क्या हुआ तुम्हें?
उसने कहा, कुछ भी नहीं हुआ। सात दिन भीख मांगने से मेरा अहंकार गल गया और
पिघल गया और बह गया। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि जो सम्राट होकर नहीं
पा सका, वह भिखारी होकर मिल सकता है। और जिस क्षण विनम्रता, ह्यूमिलिटी का
भीतर जन्म होता है, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं।
अब यह अदभुत अनुभव की बात होगी कि कोई आदमी वर्ष में दो महीने के लिए,
एक महीने के लिए संन्यासी हो जाए, फिर वापस लौट जाए, अपनी दुनियां में। इस
दो महीने में संन्यास की जिंदगी के अनुभव उसकी संपत्ति बन जायेंगे। वे उसके
साथ चलने लगेंगे। और अगर एक आदमी चालीस,पचास-साठ साल की उम्र तक दस बीस
बार थोडे थोडे दिनों के लिए संन्यासी होता चला जाए तो फिर उसे संन्यासी
होने की जरूरत न रह जाएगी। वह जहां है वहीं धीरे धीरे संन्यासी हो जाएगा।
मैं कहता आँखन देखी
ओशो
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