चेतन मन दो में बंटा हुआ है। प्रथम : संप्रज्ञात- शुद्ध हुई अवस्था का
चित्त बिलकुल शोधित, मक्खन जैसा। इसका एक अपना ही सौदर्य है, लेकिन यह मन
मौजूद तो है। और चाहे कितना ही सुंदर हो, मन अशुद्ध है, मन कुरूप है। कितना
ही शुद्ध और शांत हो जाये मन, लेकिन मन का होना मात्र अशुद्धि है। तुम विष
को शुद्ध नहीं कर सकते। वह विष ही बना रहता है। उल्टे, जितना ज्यादा तुम
इसे शुद्ध करते हो, उतना ज्यादा यह विषमय बनता जाता है। हो सकता है यह
बहुत बहुत सुंदर लगता हो। इसके अपने रंग, अपनी रंगतें हो सकती हैं,?
लेकिन
यह फिर भी अशुद्ध ही होता है।
पहले तुम इसे शुद्ध करो; फिर तुम गिरा दो। लेकिन तो भी यात्रा पूरी नहीं
हुई है क्योंकि यह सब चेतन मन में है।
अचेतन का क्या करोगे तुम? चेतन मन
की तहों के एकदम पीछे ही अचेतन का फैला हुआ महादेश है। तुम्हारे सारे पिछले
जन्मों के बीज अचेतन में रहते हैं।
तो पतंजलि अचेतन को दो में बांट देते हैं। वे सबीज समाधि को कहते है वह
समाधि, जिसमें अचेतन मौजूद है और चेतन रूप से मन गिरा दिया गया है। यह
समाधि है बीजसहित: ‘सबीज’। जब वे बीज भी जल चुके हों, तो तुम उपलब्ध होते
हो संपूर्ण निर्बीज समाधि को, बीजरहित समाधि को।
तो चेतन दो चरणों में बंटा है और फिर अचेतन दो चरणों में बंटा है। और जब
निर्बीज समाधि घटती है वह परमानंद जब कोई बीज तुम्हारे भीतर नहीं होते
अंकुरित होने के लिए या विकसित होने के लिए जो कि तुम्हें अस्तित्व में आगे
की यात्राओं पर ले चलें, तो तुम तिरोहित हो जाते हो।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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