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Tuesday, March 1, 2016

विदेही 2

ऐसा हुआ कि बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनके विरुद्ध था। उसने उन्हें मारने का बहुत तरीकों से प्रयत्न किया। बुद्ध ध्यान करते एक वृक्ष के नीचे रुके थे। उसने पहाड़ से एक विशाल चट्टान नीचे लुड़का दी। चट्टान चली आ रही थी, हर कोई भाग खड़ा हुआ। बुद्ध वहीं बने रहे वृक्ष के नीचे बैठे हुए। यह खतरनाक था, और वह चट्टान आयी उन तक, बस छूकर निकल गयी। आनंद ने उनसे पूछा, ‘ आप भी क्यों नहीं भागे, जब हम सब भाग खड़े हुए थे? काफी समय था! ‘


बुद्ध बोले, ‘तुम्हारे लिए काफी समय है। मेरा समय समाप्त है। और देवदत्त को यह करना ही था। पिछले किसी समय का, किसी जीवन का कोई कर्म था। मैंने उसे दी होगी कोई पीड़ा, कोई व्यथा, कोई चिंता। इसे पूरा होना ही था। यदि मैं बच निकलूं यदि मैं कुछ करूं तो फिर एक नया जीवन अनुक्रम शुरू हो जाये।’


एक विदेही स्व व्यक्ति जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुका है, प्रतिक्रिया नहीं करता। वह तो सिर्फ देखता है, साक्षी है। और यही साक्षी होने की अग्रि है जो अचेतन के सारे बीजों को जला देती है। तब एक क्षण आता है जब भूमि पूर्णतया शुद्ध होती है। अंकुरित होने की प्रतीक्षा में कोई बीज नहीं रहता। फिर वापस आने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। पहले प्रकृति विलीन होती है, और फिर वह स्वयं को विसर्जित करता है ब्रह्मांड में।


‘विदेही और प्रकृतिलय असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं क्योंकि उन्होंने अपने पिछले जन्म में अपने शरीरों के साथ तादात्म्य बनाना बंद कर दिया था। वे पुनर्जन्म लेते हैं क्योंकि इच्छा के बीज बचे हुए थे।’


मैं यहां कुछ पूरा करने को हूं; तुम यहां मेरा हिसाब पूरा करने को हो। तुम यहां संयोगवशात नहीं हो। संसार में लाखों व्यक्ति हैं। तुम्हीं यहां क्यों हो, और दूसरा कोई क्यों नहीं है? कुछ पूरा करना है।


पतंजलि योगसूत्र 


ओशो 


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