मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि जीवन भर
के अनुभव का सार-निचोड़ तीन सिद्धांतों में मैंने निर्मित कर लिया। तो मैंने पूछा, कौन से हैं वे सिद्धांत?
और उसने कहा कि तीन को भी अगर निचोड़ो तो बस एक ही बचता है। मैंने
कहा, कहो।
तो उसने कहा, पहला सिद्धांत। लोग युद्ध पर जाते हैं। एक दूसरे
को मारने में बड़ी झंझट उठाते हैं। बड़ा श्रम, बड़ी संपत्ति,
बड़ी शक्ति का व्यय हत्या में होता है। जाने की बिलकुल जरूरत नहीं;
थोड़ा सा धैर्य रखें, प्रकृति खुद ही सभी
को मार डालती है। जो काम प्रकृति ही कर देगी, उसके लिए हम
मेहनत क्यों उठायें? बस, जरा से धैर्य
की जरूरत है, प्रकृति खुद ही मार डालेगी। हिरोशिमा पर एटम
बम गिराने की जरूरत क्या है? सभी मर गये होते, जरा सी प्रतीक्षा चाहिए थी।
मैंने पूछा, 'और दूसरा?'
उसने कहा, दूसरा: लोग, वृक्ष पर
फल लगते हैं, पत्थर मारते हैं, डंडों
से गिराते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, कभी
फल तोड़ने में हाथ-पैर खुद के टूट जाते हैं; जरा धीरज रखें,
फल पकेगा, फल अपने आप गिर कर जमीन पर आ जायेगा।
मैंने पूछा, 'तीसरा?'
उसने कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे भागते हैं, जीवन बरबाद करते हैं;
जरा धीरज रखें, स्त्रियां उनके पीछे भागेंगी।
और उसने कहा कि तीनों का सार एक है; जरा धीरज रखें।
तुम शायद सोचते हो कि धार्मिक आदमी का लक्षण
है 'जरा धीरज
रखें'। नहीं, 'जरा धीरज' मन की तरकीब है। धार्मिक आदमी में न तो धैर्य होता है, न अधैर्य होता है; वह धीरज नहीं है। वह अधैर्य
के विपरीत धैर्य को नहीं साधता। वहां धैर्य भी चला गया है, अधैर्य भी चला गया है; अब वहां सन्नाटा है,
वहां दोनों प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं। वहां द्वंद्व चला गया है।
लेकिन सांसारिक आदमी धीरज साधता है, और धीरज मन का तेल है;
उससे ही मन का दीया जलता है। मन कहता है, थोड़ा समय और। फल पके ही जाते हैं, थोड़ा समय और।
दुनिया की सफलतायें तुम्हारे पीछे भागेंगी। थोड़ी देर और टिके रहो, जल्दी मत करो।
ऐसे ही इस आशा के सहारे तुम टिके रहे। सांसारिक
आदमी तो मन से जीता ही है; धार्मिक आदमी, तथाकथित धार्मिक आदमी भी मन से ही
जीता है। यात्रा भला उल्टी हो जाती हो, फर्क नहीं पड़ता। मौलिक
आधार वही का वही रहता है।
सांसारिक आदमी क्या कर रहा है, इसे हम ठीक से समझ लें। वह
मन को भरने की कोशिश कर रहा है। लेकिन ध्यान मन पर लगा है। ग्रामीण ने गांव के;
समझ लिया कि मैं राजा हूं। और तर्क भी साफ है कि सभी लोग झुक-झुक
कर नमस्कार कर रहे हैं। और नमस्कार मुझे ही की जा रही है यह मानने की सहज ही वृत्ति
होती है। सांसारिक आदमी मन को भरने में लगा है।
फिर तथाकथित धार्मिक आदमी क्या कर रहा है? क्योंकि न सांसारिक के जीवन
में आनंद की वर्षा दिखाई पड़ती है; उस आनंद की, जिसको कबीर कहते हैं कि आकाश से अमृत बरस रहा है। उस आनंद की, जिससे मीरा नाच उठती है कि सारा जीवन नृत्य हो जाता है। उस आनंद की,
जिससे कृष्ण की बांसुरी बजती है, और आनंद
का स्वर पैदा होता है। नहीं, वैसी आनंद की घड़ी न तो संसारी
में दिखाई पड़ती है, और न तुम्हारे तथाकथित संन्यासी में दिखाई
पड़ती है; दोनों उदास, थके और हारे
मालूम पड़ते हैं।
संसारी मन को भरने में लगा है; संन्यासी क्या कर रहा है?
संन्यासी मन को निखारने में लगा है, शुद्ध
करने में लगा है। और ध्यान रहे, न तो मन को भरा जा सकता और
न मन को निखारा जा सकता, शुद्ध किया जा सकता है; मन का स्वभाव दुष्पूर है। और ऐसे ही मन का स्वभाव, अपवित्र है। वह पवित्र तो हो नहीं सकता। जहर को तुम कैसे शुद्ध करोगे?
और अगर कर लिया तो और जहरीला होगा। जहर की शुद्धि का अर्थ होगा--और
जहरीला। जहर शुद्ध होकर अमृत न हो जायेगा, क्योंकि शुद्ध होने
से तो उसकी प्रकृति और प्रगट होगी।
तो यह एक बहुत अनूठी बात है कि सांसारिक आदमी
को मन की प्रकृति का, उसके जहर का पूरा अनुभव नहीं होता; वह पूरा अनुभव
तो संन्यासी को होता है, क्योंकि वह शुद्ध करता है। और शुद्ध
कर-कर के पाता है कि यह मन तो भयंकर जहरीला है। इतना जहर तो संसार में भी नहीं था।
क्योंकि और हजार चीजें मिली थीं, वहां तो सब चीजें मिश्रित
थीं। वहां जहर भी शुद्ध नहीं बिक रहा था, वहां सभी चीजें मिली-जुली
थीं। लेकिन जैसे-जैसे साफ होता है मन, वैसे-वैसे और जहरीला
हो जाता है। इसलिये अगर संन्यासियों ने मन के खिलाफ बहुत लिखा है, तो आश्चर्य नहीं है। उन्होंने मन को उसकी शुद्धता में जाना है।
दिया तले अँधेरा
ओशो
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