कितने लोग मेरे साथ चले और ठहर गए! जगह—जगह रुक गार, मील के पत्थरों पर रुक गए! जिसकी जितनी औकात थी, सामर्थ्य
थी, वहां तक साथ आया और रुक गया। फिर उसे डर लगने लगा कि और चलना
अब खतरे से खाली नहीं। किसी मील के पत्थर को उसने मंजिल बना लिया और वह मुझसे नाराज
हुआ कि मैं भी क्यों नहीं रुकता हूं मैं भी क्यों और आगे की बात किए जाता
मेरे साथ सब तरह के लोग चले। जैन मेरे साथ चले, मगर वहीं तक चले जहां तक महावीर
का पत्थर उन्हें ले जा सकता था। महावीर का मील का पत्थर आ गया कि वे रुक गए। और मैंने
उनसे कहां, महावीर से आगे जाना होगा। महावीर को हुए पच्चीस सौ
साल हो चुके। इन पच्चीस सौ सालों में जीवन कहां से कहां पहुंच गया, गंगा का कितना पानी बह गया! महावीर तक आ गए, यह सुंदर,
मगर आगे जाना होगा। उनके लिए महावीर अंतिम थे; वहीं पड़ाव आ जाता है, वहीं मंजिल हो जाती है।
मेरे साथ बौद्ध चले, मगर बुद्ध पर रुक गए। मेरे साथ
कृष्ण को माननेवाले चले, लेकिन क्या पर रुक गए। मेरे साथ गांधी
को माननेवाले चले, लेकिन गांधी पर रुक गए। जहां उन्हें लगा कि
उनकी बात के मैं पार जा रहा हूं वहां वे मेरे दुश्मन हो गए। मैंने बहुत मित्र बनाए,
लेकिन उनमें से धीरे— धीरे दुश्मन होते चले गए।
यह स्वाभाविक था। जब तक उनकी धारणा के मैं अनुकूल पड़ता रहा, वे
मेरे साथ खड़े रहे। मेरे साथ तो वही चल सकते हैं, जिनकी धारणा
ही चरैवेति—चरैवेति की है, जो चलने में
ही मंजिल मानते हैं। जो अन्वेषण में ही, जो शोध में ही,
अभियान में ही गंतव्य देखते हैं। गति ही जिनके लिए गंतव्य है, वही मेरे साथ चल सकते हैं। क्योंकि मैं तो रोज नयी बात कहता रहूंगा। मेरे
लिए तो रोज नया है। हर रोज नया सूरज ऊगता है, जो डूबता है वह
डूब गया। जो जा चुका, जा चुका—बीती ताहि
बिसार दे!
बहु तेरे घाट
ओशो
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