राजेंद भाटिया! जीवन पर्याप्त है।
और जीवन के दो ढंग हैं और दोनों परमात्मा के
करीब लाते हैं। जीवन का दुःख भी आदमी को परमात्मा के करीब लाता है और जीवन का सुख भी।
और जो होशियार हैं वे दोनों पंखों का उपयोग कर लेते हैं। उन्हें दुःख भी पास लाता है, सुख भी पास लाता है। जीवन का
दुःख बताता है कि हम परमात्मा से दूर हैं, इसलिए दुःखी हैं।
उसमें कैसा दुःख? हम अकड़ गए हैं। हम अहंकारी हो
गए हैं। हमने अपने को पृथक् मान लिया है। वही हमारे दुःख का कारण है। हमारे सारे दुःख
के मूल में अहंकार है, अस्मिता है। जीवन का दुःख बताता है कि
हम परमात्मा से छिटक गए हैं दूर हो गए हैं। बीमारी बताती है कि हम प्रकृति से दूर हट
गए हैं। स्वास्थ्य बताता है कि हम प्रकृति के पास आ गए।
सुख-दुःख मापदंड हैं, संकेत हैं। दुःख बताता है कि
तुम जो कर रहे हो वह कुछ ऐसा है जो तुम्हें परम प्रकृति से दूर ले जा रहा है। दुःख
इस बात की सूचना दे रहा है कि तुम दूर हट रहे हो प्रकृति से। धर्म से दूर हट रहे हो।
धर्म से दूर हटने वाले को दंड नहीं दिया जाता--दूर हटने में ही दंड मिल जाता है।
और
जब जीवन में सुख होता है तो जानना कि तुम जाने-अनजाने परम प्रकृति के करीब आ गए हो।
परम प्रकृति यानी परम धर्म, या कहो परमात्मा। ये सब नामों के
भेद हैं। जो तुम्हें रुचिकर हो, वही कहो। अगर वैज्ञानिक बुद्धि
के आदमी हो, कहो परम प्रकृति! अगर धार्मिक बुद्धि के आदमी हो,
भत्ति-भाव से भरे, कहो परमात्मा! अगर गणित पर बहुत
भरोसा है तो कहो--धर्म, नियम, ताओ! ये सब
उसी एक की तरफ इशारे हैं अलग-अलग तरह के लोगों के, अलग-अलग ढंग
के लोगों के।
ज्योत से ज्योत जले
ओशो
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