सत्य वेदांत,
विचार कभी भी नया नहीं होता। विचार का स्वभाव
ही उसे नया नहीं होने दे सकता। मौलिकता और विचार विपरीत आयाम हैं। विचार तो हमेशा ही
बासा होता है; क्योंकि शब्द बासे होते हैं, भाषा बासी होती है।
अनुभूति मौलिक होती है। जीवन-सत्य का साक्षात्कार
मौलिक होता है। लेकिन जैसे ही जीवन-सत्य को भाषा का वेश दिया, जैसे ही जीवन-सत्य को अभिव्यक्ति
दी, वैसे ही उसकी मौलिकता आच्छादित हो जाती है।
इसलिए जो लोग कहते हैं कि मेरे पास कोई नया विचार
नहीं, वे सोचते
होंगे मेरी आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वस्तुतः अनजाने वे मेरे
सत्य का प्रचार कर रहे हैं।
मैंने कभी कहा नहीं कि विचार मौलिक होता है।
मैंने कभी कहा नहीं कि यह विचार मेरा है। मैं कैसे मौलिक होगा? मैं तो उधार है। मेरा का
भाव भी उधार है। लेकिन मैं और मेरे के पीछे भी कुछ है--चैतन्य है, साक्षी है। और उस चैतन्य में जागना, उस चैतन्य
में डूबना, उस चैतन्य से आपूरित हो जाना--वह मौलिक है,
वह कभी भी बासा नहीं, वह कभी उधार नहीं।
लेकिन वहां मैं की कोई सीमा नहीं, वहां मैं की कोई पहुंच नहीं।
इसलिए जो मौलिक है वह अस्तित्व का है; और जो उधार है वह अहंकार
का है।
अब मेरी भी मजबूरी है। और मेरी ही नहीं, जिन्होंने जाना उन सबकी यही
मजबूरी रही। बोलना तो पड़ेगा भाषा में, क्योंकि जिनसे बोलना
है उनके पास मौन को समझने की कोई क्षमता नहीं। जो जाना है वह मौन में जाना है,
और जिनसे कहना है उन्हें मौन का कुछ पता नहीं। तो भाषा का उपयोग करना
होगा। और भाषा का उपयोग किया कि अनुभूति की ताजगी गई, अनुभूति
का जीवन गया। भाषा आई कि अनुभूति को मौत आई। अनुभूति तो ताजी होती है, जीवंत होती है, जैसे सुबह की ओस की ताजगी,
नये-नये खिले फूल की ताजगी--लेकिन अनुभूति रहे अनुभूति तो ही;
भाषा के वस्त्र पहनाए कि बस बात खोनी शुरू हो गई।
फिर और भी अड़चनें हैं। मैं जब कुछ कहूंगा तो
तुम वही थोड़े ही सुनोगे जो मैंने कहा;
तुम वह सुनोगे जो तुम सुन सकते हो। तुम्हारी बंधी धारणाएं हैं,
तुम्हारे अपने पक्षपात हैं। उन्हीं पक्षपातों की आड़ से सुनोगे। सुनोगे
नहीं--भाषांतर करते रहोगे, अपना रंग पहनाते रहोगे,
अपना ढंग देते रहोगे। कहूंगा तो मैं, लेकिन
सुनोगे तो तुम, और तुम आ जाओगे उस सब में जो मैंने कहा। तुम
तक पहुंचते-पहुंचते वह बात मेरी न रह जाएगी, तुम्हारी हो जाएगी।
और अगर तुमने फिर किसी को वह बात कही, तब तो सत्य हजारों कोस
दूर छूट जाएगा।
पहली बात, मौन मौलिक है। मौलिक शब्द को समझो। मौलिक का
अर्थ होता है: जो मूल से उगा, जो मूल से आया--मूल उदगम से,
परम स्रोत से।
लेकिन भाषा तो मौलिक नहीं है, शब्द तो मौलिक नहीं हैं।
शब्द आते हैं परंपरा से। शब्द आते हैं सदियों पुरानी यात्रा करके। उन पर न मालूम कितनी
यात्रा की धूल जमी है। मगर उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होगा, मजबूरी है, एक आवश्यक बुराई है।
सत्य वेदांत, तुमने जो पूछा है वैसे पत्र मेरे पास निरंतर
आते हैं। जे.कृष्णमूर्ति के एक अनुयायी ने कुछ ही दिन पहले पत्र लिखा है कि मेरे विचारों
में जे.कृष्णमूर्ति की झलक है।
जे.कृष्णमूर्ति को जो सुनता है, स्वभावतः उसे मेरे विचारों
में जे.कृष्णमूर्ति की झलक मिल सकती है। लेकिन इस पूछने वाले को यह सवाल नहीं उठा कि
जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में बुद्ध की झलक है या नहीं? और
जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में लाओत्सु के विचारों की झलक है या नहीं? जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में उपनिषद की छाया है या नहीं? नहीं, यह सवाल नहीं उठा। उसका अपना पक्षपात है।
जे.कृष्णमूर्ति मौलिक हैं। लेकिन मुझमें उसे जे.कृष्णमूर्ति के विचारों की झलक मिलनी
शुरू हो गई। अपना पक्षपात थोप देने की आकांक्षा बड़ी प्रगाढ़ होती है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं। जे.कृष्णमूर्ति
का दावा है कि उनके विचार मौलिक हैं। और वह दावा गलत है; क्योंकि ऐसा एक भी विचार
नहीं है जे.कृष्णमूर्ति का जो उपनिषदों में मौजूद न हो, जो
बुद्ध की वाणी में मौजूद न हो, जिसे लाओत्सु ने और भी प्रगाढ़ता
से न कहा हो। जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में झेन सदगुरुओं की सहज पुनरुक्ति है। लेकिन
जे.कृष्णमूर्ति जीवन भर यह कोशिश करते रहे हैं कि उनके विचार मौलिक हैं। इतना ही नहीं,
अपने विचारों की मौलिकता को सिद्ध करने के लिए वे यह भी कहते हैं
कि मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैंने उपनिषद नहीं पढ़े, बुद्ध-वचन
नहीं पढ़े, कोई धर्म-शास्त्र नहीं पढ़े।
यह बात सरासर झूठ है। क्योंकि जे.कृष्णमूर्ति
को ये सारे शास्त्र पढ़ाए गए थे। पढ़े ही नहीं,
बल्कि एनीबीसेंट, लीडबीटर और दूसरे थियोसॉफिस्टों
ने कोई बीस वर्ष जे.कृष्णमूर्ति के ऊपर श्रम किया, ताकि वे
सारे अस्तित्व में अब तक जो भी श्रेष्ठतम विचार हुए हैं, उनके
मालिक हो जाएं। लेकिन यह दावा कि मेरे विचार मौलिक हैं, तभी
सिद्ध किया जा सकता है जब इनकार ही कर दिया जाए कि मुझे पता ही नहीं कि उपनिषदों में
क्या है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं, इसलिए मेरी आलोचना करनी असंभव
है। मेरी तो धारणा ही यही है कि विचार मौलिक होते ही नहीं--किसी के भी हों। अनुभूति
मौलिक होती है। और अनुभूति एक ही सत्य की है, इसलिए क्या करोगे?
एक छोटे स्कूल में यह घटना घटी। दो छोटे बच्चे, जुड़वां भाई। अध्यापिका ने
कुत्ते के ऊपर निबंध लिखने को कहा था। सारे बच्चे निबंध लिख कर लाए थे। वे दोनों बच्चे
भी निबंध लिख कर लाए थे। अध्यापिका बहुत हैरान हुई, क्योंकि
उनके दोनों निबंध शब्दशः एक जैसे थे, जरा सा भी भेद नहीं था।
तो अध्यापिका ने पूछा कि यह आश्चर्य की बात है, तुम दोनों
ने निबंध बिलकुल एक जैसा लिखा है, एक मात्रा का भी भेद नहीं
है।
उन दोनों बच्चों ने कहा, हम कर भी क्या सकते हैं!
हमारे घर में दोनों का एक ही कुत्ता है, उसी का वर्णन कर रहे
हैं। और ऊपर से यह भी मुसीबत है कि हम जुड़वां भाई हैं, इसलिए
हमारे देखने और सोचने का ढंग भी एक ही जैसा है। इसमें हमारा कोई कसूर नहीं।
मैं नहीं कहता हूं कि कृष्णमूर्ति ने उपनिषद
से विचार चुराए हैं; वह बात गलत होगी। लेकिन उपनिषद के ऋषियों ने जो सत्य जाना, वह सत्य ही एक है। फिर बुद्ध जानें उसे, जरथुस्त्र
जानें उसे, नानक जानें उसे, कबीर
जानें उसे, कृष्णमूर्ति जानें उसे, या तुम जानो, कुछ भेद न पड़ेगा। थोड़े-बहुत भेद हो
सकते हैं अभिव्यक्ति के, लेकिन मूलतः भेद नहीं हो सकता।
सत्य एक है। और सत्य के जानने की विधि भी एक
है--अहंकार का विसर्जन, मन से मुक्ति। जहां मन न रहा, वहां सत्य प्रकट
होता है।
अब यूं समझो कि एक अंधे आदमी की आंख खुले, तो क्या उसे कुछ प्रकाश में
दूसरा अनुभव होगा जैसा कि पहले अंधे आदमियों की आंखें खुली थीं तो उनको भी वही प्रकाश
का अनुभव हुआ था? क्या तुम यह कहोगे कि यह अंधा आदमी प्रकाश
के संबंध में जो कह रहा है, यह उधार है, यह दूसरों की बातें दोहरा रहा है?
मगर प्रकाश एक है, आंख के देखने का ढंग एक है।
जब भी कोई अंधा आदमी आंख पाएगा, तो क्या करेगा--वही रंग,
वही प्रकाश, वही चांद, वही तारे, वही सूरज। थोड़ा अंदाजे-बयां और हो सकता
है। लेकिन बयान का ढंग, अंदाज, मौलिक
भेद नहीं पैदा करता।
कृष्णमूर्ति का दावा गलत है कि विचार मौलिक हैं।
अनुभूति मौलिक है। मैं जो कह रहा हूं,
अपनी अनुभूति से कह रहा हूं। यह और बात है कि औरों को भी यह अनुभूति
हुई है। मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि यह अनुभूति मुझे ही हुई है, पहली बार ही हुई है। उपनिषद के ऋषियों को भी हुई थी, कृष्ण ने भी जानी थी, महावीर ने भी पहचानी थी,
बुद्ध भी उसी में डूबे थे, मीरा उसी में
नाची थी, गाई थी, गुनगुनाई थी।
इसलिए जो लोग सोचते हैं कि मेरी आलोचना कर रहे
हैं, वे गलती
में हैं; वे मेरे सत्य की ही उदघोषणा कर रहे हैं। हां,
मैंने अगर कहा होता कि मेरे विचार मौलिक हैं, तो आलोचना सार्थक हो सकती थी। यह आलोचना तो मूढ़तापूर्ण है। मैं तो खुद ही
कहता हूं कि विचार मौलिक हो ही नहीं सकते हैं, मेरेतेरे
का सवाल ही नहीं है।
राम नाम जान्यो नहीं
ओशो
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