संत महाराज! तुम्हें भी पहरे पर बैठे-बैठे न
मालूम क्या-क्या सूझता है! वहां दरवाजे पर पहरा देते-देते एक से एक ऊंचे खयाल
तुम्हें उठते हैं। पहले भैया, परमात्मा को भी तो पूछने दो कि उसे तुम्हारे दर्शन करने हैं कि नहीं!
आपने चाहा, सो बड़ी कृपा! मगर यह मामला दोत्तरफा है। कोई
तुम्हीं थोड़े ही उसके दर्शन करोगे, उसको भी तो तुम्हारे
दर्शन करने पड़ेंगे। तो पहले मुझे उससे पूछने दो कि संत महाराज के दर्शन करने हैं?
जहां तक मैं समझता हूं, अभी वह राजी
नहीं है। तो तुम थोड़ा ठहरो।
ऐसे खाली बैठे-बैठे ऊंचे खयाल उठते हैं।
ट्रेन लेट थी और हर घंटे के बाद लेट होने की
अवधि बढ़ती ही जा रही थी। एक घंटा,
दो घंटे से बढ़ते-बढ़ते ट्रेन पूरे छह घंटे बाद भी नदारद। आखिर
मुल्ला नसरुद्दीन झुंझला उठा और स्टेशन मास्टर के पास जा पहुंचा और उससे बोला:
सुनिए भाई साहब, यहां आस-पास कोई कब्रिस्तान है या नहीं?
स्टेशन मास्टर ने जवाब दिया: नहीं तो, क्यों क्या बात है?
मुल्ला बोला: अजी जनाब, मैं यह सोच रहा था कि
ट्रेन का इंतजार करते-करते जो लोग मर जाते होंगे, उन्हें
कहां दफनाया जाता होगा?
अब तुम भी बैठे...दरवाजे पर बैठे, सो ऊंचे-ऊंचे खयाल आते
हैं कि तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ! परमात्मा ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा
भैया? तुम अपने घर चंगे, वह अपने
घर चंगा--और कठौती में गंगा! न वह तुम्हारे पीछे पड़ा, न
तुम उसके पीछे पड़ो। उसको खुद ही झंझट लेनी होगी तो वह खुद ही तुम्हारे पीछे पड़ेगा।
तुम तो शांति से बैठे रहो। ऐसी दार्शनिक बातों में न पड़ा करो। पंजाबी होकर ये
बातें शोभा देतीं भी नहीं।
शुरू-शुरू संत महाराज जब आए थे, जब वे ध्यान करते थे,
तो उनका ध्यान देखने लायक था। जहां वे ध्यान करते थे, वहां जगह खाली करवा देनी पड़ती थी, क्योंकि वे
ध्यान में एकदम क्या-क्या बकते, क्या-क्या वजनी गालियां
देते! घूंसे तानते, कुश्तमकुश्ती करते। किससे करते,
वह कुछ पता नहीं चलता। किसी अदृश्य शक्ति से बिलकुल जूझते। जैसे
भूत-प्रेतों से लड़ रहे हों। मुझसे आकर लोग पूछते कि संत क्या करते हैं? मैं कहता: कुछ नहीं, पंजाबी हैं। ऐसे
धीरे-धीरे पंजाबीपन निकल जाएगा। निकल गया। अब शांत हो गए हैं। जब से शांत हो गए
हैं, मैं उनसे संत महाराज कहने लगा हूं। संत भी उनको नाम
इसीलिए दिया था कि भैया! किसी भी तरह शांत हो जाओ! शांति धारण करो!
हो जाती है ऐसी झंझट। मैं नवसारी में एक शिविर
ले रहा था। कोई तीन सौ मित्र शिविर में ध्यान कर रहे थे। एक सरदार जी आ गए। अच्छी
बात कि सरदार जी आए! मगर उन्होंने ध्यान क्या किया...सक्रिय ध्यान में उन्होंने
मार-पीट शुरू कर दी! संत तो हवाई मार-पीट करते थे, उन्होंने बिलकुल मार-पीट शुरू कर दी। आस-पास
के दो-चार-दस आदमियों की पिटाई कर दी। जो पास आ जाए उसको ही लगा दें। और इस तरह
बिफराए कि बिलकुल जेहाद छेड़ दिया--धर्मयुद्ध! बामुश्किल उनको रोका जा सका। उनको जब
रोका गया तो वे चिल्लाएं कि मुझे ये ध्यान नहीं करने दे रहे हैं!
ये ध्यान करने भी तुम्हें कैसे दें! तुम किसी
का सिर खोल दोगे, किसी का हाथ-पैर तोड़ दोगे। वे कह रहे हैं: अभी तो मेरा ध्यान जोश में आ
रहा है। और आपने ही तो कहा कि हो जाने दो जो होना है, निकाल
दो सब चीजें! सो जो-जो भरा है...।
वे कुछ बुरे आदमी नहीं थे। बाद में सबसे
माफी मांगी उन्होंने कि भाई क्षमा करना,
कोई से दुश्मनी नहीं है, किसी का कुछ
मैं बिगाड़ना नहीं चाहता। मगर मन बड़ा मेरा हलका भी हो गया है। कई दिनों से यह बात
चढ़ी थी। वह तो यही कहो कि कृपाण वगैरह साथ नहीं लाए थे।
संत अब शांत हो गए हैं। और उनको काम मैंने
दिया है द्वार पर पहरे का, क्योंकि उससे ज्यादा और ध्यानपूर्ण कोई काम नहीं है; वहां कुछ करना नहीं है, सिर्फ बैठे रहना है।
दरवाजे से लोगों का आना-जाना है, वह देखते रहना है। यही
तो ध्यान की प्रक्रिया है। ध्यान में भी ऐसे ही पहरेदार बन कर बैठ जाना पड़ता है
भीतर और मन के दरवाजे से जो विचारों का आना-जाना होता है उसको देखते रहना पड़ता है।
संत दरवाजे पर बैठे-बैठे ही समाधि को उपलब्ध हो जाएंगे।
तुम चिंता न करो संत! तुम्हारी चिंता मैं कर
रहा हूं। तुम बेफिक्र रहो। परमात्मा का भी दर्शन होगा। परमात्मा कहीं छिपा थोड़े ही
है; मौजूद ही
है, सिर्फ हमारी आंखों पर थोड़ी सी धूल जमी है--विचारों की
धूल, वह धूल झड़ जाएगी कि तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ने
लगेगा। जो भी आएगा दरवाजे के भीतर और जो भी जाएगा, उसमें
ही परमात्मा दिखाई पड़ेगा।
और द्वार पर बैठना तुम्हारे लिए इसलिए रखा
है। और तुम उसका ठीक उपयोग कर रहे हो। क्योंकि वही ध्यान की प्रक्रिया है--साक्षी।
मन है क्या? सतत
विचारों का आवागमन। राह चलती ही रहती है, चलती ही रहती
है--विचार, वासनाएं, इच्छाएं,
आकांक्षाएं, भाग-दौड़ मची हुई है,
बाजार भरा हुआ है। तुम बैठे हो किनारे और देख रहे हो। तुम्हें
कुछ करना नहीं है, सिर्फ देखना है--कौन गया, कौन आया; नजर रखनी है। कोई निर्णय भी नहीं
लेना--कौन अच्छा, कौन बुरा। ऐसे बैठे-बैठे यह छोटा सा
पहरेदारी का काम तुम्हें भीतर की पहरेदारी सिखा देगा।
यहां मैंने जो भी काम किसी को दिया है, उसके पीछे प्रयोजन है,
खयाल रखना। तुम्हें शायद एक दफा समझ में आए या न आए, शायद तुम्हें बहुत बाद में समझ में आए कि क्या प्रयोजन था। जब प्रयोजन
पूरा हो जाए तभी शायद समझ में आए। लेकिन यहां जिसे भी मैंने जो काम दिया है,
उसका प्रयोजन है। यहां कोई भी काम ऐसा नहीं है जो साधना से जुड़ा
न हो। जिसके लिए जो जरूरी है, वह उसी के लिए वैसी ही
साधना में संयुक्त करा दिया है।
संत,
परमात्मा भी मिलेगा। परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। उसके ऊपर थोड़े
ही कोई पर्दा है। परमात्मा कोई मुसलमान औरत थोड़े ही है कि बुर्का ओढ़े बैठे हैं।
अभी तुमने पाकिस्तान की खबरें पढ़ीं? मूढ़ता की भी हदें
होती हैं! अब वहां स्त्रियों को मनाही कर दी गई है कि वे किसी भी खेल में
पैंट-कमीज नहीं पहन सकती हैं। क्योंकि पैंट-कमीज पहनें तो उनकी नंगी टांगें लोगों
को दिखाई पड़ जाएं! इतना ही नहीं, अब स्त्रियों के किसी
खेल में पुरुष दर्शक नहीं हो सकते। स्त्रियां खेलें फुटबाल और खेलें टेनिस,
मगर पुरुष दर्शक नहीं हो सकते, सिर्फ
स्त्रियां ही दर्शक हो सकती हैं। वह तो बड़ी कृपा की कि उन्होंने...जरा एक कदम और
आगे बढ़ते कि स्त्रियां खेलें हॉकी और बुर्का पहनें। तब आता पूरा मजा। तब होती
धार्मिकता पूरी।
मूढ़ताओं की हद है! ये सब बातें किस बात का
सबूत देती हैं? आदमी की पाशविकता का, आदमी की हैवानियत का।
क्या ओछी बात! और स्त्रियां चुप हैं, कोई विरोध नहीं है।
पहले तुम उन्हें मस्जिदों में नहीं जाने देते थे, चलो वह
भी ठीक; अब तुम उन्हें खेल में भी मत जाने देना। और आज
नहीं कल इसका आखिरी तार्किक परिणाम वही होने वाला है कि बुर्का ओढ़ो और हॉकी खेलो।
परमात्मा कोई मुसलमान स्त्री नहीं है कि
बुर्का ओढ़े बैठे हुए हैं। परमात्मा तो प्रकट है--हर फूल में, हर पत्ते में, हर चांद, हर तारे में। सिर्फ हम अंधे हैं,
या हमारी आंखें बंद हैं, या हमारी आंखों
पर पर्दा पड़ा हुआ है। उसी पर्दे को हटाने का उपाय चल रहा है यहां।
संत,
पर्दा हट रहा है। और जैसे-जैसे पर्दा हटेगा, वैसे-वैसे तुम्हारी आकांक्षा प्रगाढ़ होगी, वैसे-वैसे
परमात्मा को पाने की प्यास गहन होगी। पीड़ा बढ़ेगी, विरह
जगेगा। अब पा लूं, अब पा लूं--ऐसी त्वरा पैदा होगी। ये सब
अच्छे लक्षण हैं। ये शुभ लक्षण हैं। ये, वसंत करीब आ रहा
है, इसकी सूचनाएं हैं।
रहिमन धागा प्रेम का
ओशो
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