मैं एक कहानी कहता रहा हूं कि कृष्ण भोजन को बैठे हैं, और दो-चार कौर
लिए हैं और भागे हैं थाली छोड़ कर! रुक्मिणी ने उनसे पूछा, आपको क्या हो
गया? जाते कहां हैं? लेकिन उन्होंने सुना नहीं, वे द्वार तक चले गए हैं
दौड़ते हुए, जैसे कहीं आग लग गई हो!
रुक्मिणी भी उठी, उनके दो-चार कदम पीछे गई है। फिर वह दरवाजे पर ठिठक गए, वापस लौट आए, थाली पर बैठ कर चुपचाप भोजन करने लगे!
रुक्मिणी ने कहा कि मुझे बड़ी पहेली में डाल दिया! एक तो आप ऐसे भागे कि
मैंने पूछा कहां जा रहे हैं, तो उसका उत्तर देने तक की भी आपको सुविधा न
थी। और फिर आप ऐसे दरवाजे से लौट आए कि जैसे कहीं भी न जाना था! हुआ क्या
है?
तो कृष्ण ने कहा कि मुझे प्रेम करने वाला, मेरा एक प्यारा एक रास्ते से
गुजर रहा है। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे हैं, और वह है कि मंजीरे बजाए चला
जा रहा है और मेरा ही गीत गाए चला जा रहा है! लोग पत्थर फेंक रहे हैं और
उसने उत्तर भी नहीं दिया है उनका कोई, मन में भी उत्तर नहीं दिया है, मन
में भी वह सिर्फ देख रहा है कि लोग पत्थर मार रहे हैं, उसके माथे से खून की
धारा बह रही है! तो मेरे जाने की जरूरत पड़ गई थी। इतने बेसहारे के लिए अगर
मैं न जाऊं तो फिर मेरा अर्थ क्या है?
तो रुक्मिणी ने पूछा, फिर लौट क्यों आए? उन्होंने कहा, लेकिन जब तक मैं
दरवाजे पर गया, वह बेसहारा नहीं रह गया था। उसने मंजीरे नीचे फेंक दिए और
पत्थर हाथ में उठा लिए। उसने अपना इंतजाम कर लिया, अब मेरी कोई जरूरत नहीं।
उसने मेरे लिए मौका नहीं छोड़ा है। वह खाली जगह नहीं छोड़ी है, जहां मेरी
जरूरत पड़ जाए।
जब व्यक्ति अपना इंतजाम कर लेता है तो जीवन की शक्तियों के लिए कोई उपाय
नहीं रह जाता। और हम सब अपना इंतजाम कर लेते हैं और इसीलिए हम वंचित रह
जाते हैं।
संन्यासी का मतलब ही सिर्फ इतना है कि जो अपने लिए इंतजाम नहीं करता और छोड़ देता है सब इंतजाम।
महावीर मेरी दृष्टी में
ओशो
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