ब्राह्मण-संस्कृति इसी सूत्र का विस्तार है–परमात्मा का अवतरण, परमात्मा
का फैलाव। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है: जो फैलता चला जाए, जो बहुत रूप
धरे, जो बहुत लीला करे, जो अनेक-अनेक ढंगों से अभिव्यक्त हो, सागर जैसे
अनंत-अनंत लहरों में विभाजित हो जाए।
एक अनेक बनता है, एक अनेक में उत्सव मनाता है। एक अनेक में डूबता है, स्वप्न देखता है। माया सर्जित होती है।
संसार परमात्मा का स्वप्न है। संसार परमात्मा के गहन में उठी विचार की तरंगें हैं।
ब्राह्मण-संस्कृति ने परमात्मा के इस फैलाव के अनूठे गीत गाए। उससे
भक्ति-शास्त्र का जन्म हुआ। भक्ति-शास्त्र का अर्थ है: परमात्मा का यह
फैलता हुआ रूप, अहोभाग्य है। परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप परम आनंद है।
इसलिए भक्ति में रस है, फैलाव है। एक शब्द में कहें तो महावीर का जो बचपन
का नाम है, वह ब्राह्मण-संस्कृति का सूचक है। महावीर का बचपन का नाम था:
वर्द्धमान–जो फैले, जो विकासमान हो। फिर महावीर को दूसरी ऊर्जा का, दूसरे
अनुभव का, दूसरे साक्षात का सूत्रपात हुआ। वह ठीक वेद से उलटा है।
वेद कहते हैं, वह अकेला था, ऊबा, उसने बहुत को रचा। महावीर बहुत से ऊब
गए, भीड़ से थक गए और उन्होंने चाहा, अकेला हो जाऊं। परमात्मा का उतरना
संसार में, फैलना और महावीर का लौटना वापिस परमात्मा में! इसलिए
श्रमण-संस्कृति के पास अवतार जैसा कोई शब्द नहीं है। तीर्थंकर! अवतार का
अर्थ है: परमात्मा उतरे, अवतरित हो। तीर्थंकर का अर्थ है: उस पार जाए, इस
पार को छोड़े। अवतार का अर्थ है: उस पार से इस पार आए। तीर्थंकर का अर्थ है:
घाट बनाए इस पार से उस पार जाने का। संसार कैसे तिरोहित हो जाए, स्वप्न
कैसे बंद हो, भीड़ कैसे विदा हो; फिर हम अकेले कैसे हो जाएं–वही
श्रमण-संस्कृति का आधार है। वर्द्धमान कैसे महावीर बने, फैलाव कैसे रुके;
क्योंकि जो फैलता चला जा रहा है उसका कोई अंत नहीं है। वह पसारा बड़ा है। वह
कहीं समाप्त न होगा। स्वप्न फैलते ही चले जाएंगे, फैलते ही चले जाएंगे–और
हम उनमें खोते ही चले जाएंगे। जागना होगा!
भक्ति-शास्त्र ने परमात्मा के इस संसार के अनेक-अनेक रूपों के गीत गाए,
महावीर ने इस फैलती हुई ऊर्जा से संघर्ष किया–इसलिए “महावीर’ नाम–लड़े, धारा
के उलटे बहे।
गंगा बहती है गंगोत्री से गंगासागर तक–ऐसी ब्राह्मण-संस्कृति है।
ब्राह्मण-संस्कृति का सूत्र है: समर्पण; छोड़ दो उसके हाथ में, जहां वह जा
रहा है; चले चलो; भरोसा करो; शरणागति!
महावीर की सारी चेष्टा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहे–मूलस्रोत
की तरफ, उत्स की तरफ। लड़ो! दुस्साहस करो–संघर्ष, समर्पण नहीं। महान संघर्ष
से गुजरना होगा, क्योंकि धारा को उलटा ले जाना है, विपरीत ले जाना है।
धारा का अर्थ है: जाए गंगोत्री से गंगा सागर की तरफ। धारा को उलटा करना
है–राधा बनाना है। गंगा चले, बहे उलटी, ऊपर की तरफ, पानी पहाड़ चढ़े। मूल
उदगम की खोज हो।
ब्राह्मण-संस्कृति आधी है। श्रमण-संस्कृति भी आधी है। दोनों से मिलकर
पूरा वर्तुल निर्मित होता है। और इसलिए इस देश में ब्राह्मण और श्रमणों के
बीच जो संघर्ष चला, उसने दोनों को पंगु किया। तब ब्राह्मणों के पास फैलने
के सूत्र रह गए, श्रमणों के पास सिकुड़ने के सूत्र रह गए! दोनों ही अधूरे हो
गए; सत्य आधा-आधा कट गया। मेरे देखे, जहां ब्राह्मण और श्रमण राजी होते
हैं, सहमत होते हैं, मिल जाते हैं, वहीं परिपूर्ण धर्म का आविर्भाव होता
है।
जिनसूत्र
ओशो
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