प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य
दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत
उठता है–वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई
दूर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की
प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से
बिलकुल उलटा है।
इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घृणा बनने में देर कहां लगती है! अभी प्रेम
था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया।
क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये।
तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम
सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर
गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ;
जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव
होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव,
धन्यता, कृतज्ञता।
नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी
नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से
मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह
रहा हूं कि वासना से मुक्त होने का एक ही उपाय है: उसे जान लो। जिसे हम
जान लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है।
सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई रूपांतरण नहीं है।
जिन सूत्र
ओशो
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