सत्य की अनुभूति एक है, अभिव्यक्तियां अनेक हैं।
इसलिए इस सूत्र में कहा है, अनेक हैं शिक्षक, लेकिन वह महागुरु एक है।
और जिस शिक्षक में उसकी भनक मिल जाए, जिस शिक्षक में आपको उसकी झलक मिल
जाए, वही शिक्षक आपके लिए द्वार है। फिर आप अन्य शिक्षकों की चिंता छोड़
देना। क्यों? क्योंकि आपको भी जिस शिक्षक में उसकी भनक मिलती है, उसका यही
कारण है। यह नहीं कि उस शिक्षक में सत्य है और दूसरों में नहीं। उसका भी
कारण यही है कि उस शिक्षक की जो अभिव्यक्ति है, वह आपके व्यक्तित्व के
अनुकूल है। इसलिए उस शिक्षक में आपको गुरु दिखाई पड़ता है। उस शिक्षक की
अभिव्यक्ति, और आपके व्यक्तित्व में कोई तालमेल है।
तो महावीर भी निकलते
हैं उसी गांव से, और उसी गांव से बुद्ध भी निकलते हैं लेकिन कोई बुद्ध के
चुंबक से खिंच जाता है। कोई महावीर के चुंबक से खिंच जाता है, कोई है जो
महावीर का स्पर्श भी नहीं कर पाता, महावीर से उसका कोई मेल नहीं बनता। ऐसा
ही नहीं, महावीर के विपरीत भी वह चला जाता है। और वही आदमी बुद्ध से खिंच
जाता है और बुद्ध का जादू उसे पकड़ लेता है। कोई दूसरा उसी गांव में बुद्ध
से वंचित रह जाता है।
आपका व्यक्तित्व भी जब किसी के साथ लयबद्ध हो जाता है
और जब आप अनुभव करते हैं एक ही स्वाद का, जो महावीर को अनुभव हुआ है स्वाद
का, अगर आपकी जीभ भी उस भांति की है कि उस स्वाद को ले सके, तो ही महावीर
आपको खींच पाते हैं। जो शिक्षक आपको खींचता है, वह अपने संबंध में तो कुछ
कहता ही है, आपके संबंध में और भी ज्यादा कहता है। जिससे आप खिंचते हैं,
उससे आपका तालमेल है,
उससे आपकी आत्मिक निकटता है। आप उसके लिए हैं, वह
आपके लिए है।
समाधि के सप्तद्वार
ओशो
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