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Thursday, March 31, 2016

समयातीत

तुमने कभी खयाल किया! कोई प्रेमी घर आ जाये, घंटा बीत जाता है, क्षणभर मालूम पड़ता है। और कोई उबानेवाले सज्जन घर आ जायें और बकवास करें, दो-चार-पांच मिनट भी ऐसे लगते हैं जैसे कि घंटों लगाये दे रहे हैं। क्या हो जाता है? समय में इतना अंतर क्यों हो जाता है?


समय बड़ा लोचपूर्ण है। जब तुम सुख अनुभव करते हो, समय छोटा हो जाता है। तब तुम मित्र की बातें सुन रहे हो, साधारण-सी बातें हैं, बड़ी मधुसिक्त हो जाती हैं। जब कोई आ जाता है उबानेवाला, चाहे बातें वह बड़ी मधुर कर रहा हो, लेकन तुम्हें रास नहीं आता। तो एक भेद पड़ गया। तुम उस चर्चा में डूब नहीं पाते। चर्चा की क्रिया गतिमान नहीं हो पाती, ठहर-ठहर जाती है, लंगड़ाती है। तुम जबर्दस्ती बार-बार घड़ी देखते हो, जम्हाई लेते हो, कोई तरह इशारा करते हो कि भाई देखो, अब जाओ भी!


अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन में उल्लेख है कि एक मित्र के घर गया था। भुलक्कड़ आदमी था। बात चलती रही, भोजन हो गया। फिर बात चलती रही। मित्र बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले। आइंस्टीन भी बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले; लेकिन उठे न। आखिर मित्र ने कहा, “दो बज रहे हैं, पत्नी राह देखती होगी…।’ आइंस्टीन ने कहा, “मतलब?’

मित्र ने कहा, “मेरा मतलब यह है कि पत्नी राह देखती होगी…। वैसे कोई हर्जा नहीं है, आप बैठें और।’ आइंस्टीन घबड़ाकर खड़ा हो गया। उसने कहा, “हद्द हो गई, मैं तो सोचता था कि कब आप जायें तो मैं सोऊं। मैं तो यही सोच रहा था कि मैं अपने घर में हूं।’


दोनों घड़ी देख रहे हैं, दोनों जम्हाई ले रहे हैं। समय बड़ा लंबा मालूम पड़ता है।


जब तुम किसी क्रिया के साथ लीन नहीं हो पाते, वही क्रिया, ठीक वही क्रिया…।


तुम नाच रहे हो–किसी और के लिए, नाचना नहीं चाहते, तो समय रहेगा। तुम नाच रहे हो अपने लिए, या किसी के लिए जिसके लिए तुम नाचना चाहते हो–समय मिट जायेगा। समय तनाव है। जहां तनाव नहीं वहां समय नहीं। जहां तुम बेत्तनाव हो, वहां समय नहीं; तुम समयातीत हो गये, कालातीत हो गये।


और यही बात जो समय के संबंध में सच है वही बात क्षेत्र के संबंध में भी सच है। टाइम-स्पेस, समय और क्षेत्र यह दोनों एक साथ खो जाते हैं, जब तुम्हारी लीनता परिपूर्ण होती है। भक्त अपनी भक्ति में भूल जाता है–सब भूल जाता है। भगवान को भी भूल जाता है। धुन रह जाती है। मस्ती रह जाती है। ध्यानी अपने ध्यान में भूल जाता है–ध्यान को भी भूल जाता है। फिर बस एक सुवास रह जाती है। वह सुवास इस पृथ्वी की नहीं है। उस सुवास को न तो समय घेरता है, न स्थान घेरता है। वह सुवास समय-क्षेत्र अतीत है।

जिन सूत्र 

ओशो 

 

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