तुमने कहानी सुनी है न अजामिल की, कि अजामिल मरा। उसने कभी जीवन में
परमात्मा का नाम न लिया, लेकिन उसके बेटे का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने
बुलाया, नारायण! नारायण तू कहां है? और ऊपर के नारायण समझे कि मुझे बुला
रहा है। वह अपने बेटे को बुला रहा था, उसको ऊपर के नारायण से कुछ लेना देना
न था। मर गया नारायण को पुकारते और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए और वह
स्वर्ग गया।
यह जिन ने कहानी गढ़ी है, इनसे सावधान रहना! इस तरह के लोगों से सावधान
रहना! किसको तुम धोखा दे रहे हो? और अगर तुम्हारा परमात्मा इस तरह धोखे में
आता है तो दो कौड़ी का परमात्मा है। इस तरह के परमात्मा का कोई मूल्य नहीं
है। तुम्हारी आत्मा जिस दशा में होगी, वही अंकित होगा अस्तित्व पर, उससे
अन्यथा कुछ भी अंकित नहीं हो सकता।
तो यह दहर का बाप मर रहा था। बेटा भिक्षु हो गया है, तो भी इसे याद नहीं
आती कि कुछ अपनी सोचे, कुछ अपनी सुध ले। बल्कि मरते वक्त आदमी और और
तीव्रता से दूसरी बातें सोचने लगता है। यह भी एक तरकीब है, ताकि मौत
दिखायी न पड़े। जैसे जैसे मौत करीब आने लगती है आदमी की, वैसे वैसे आदमी सब
तरह से अपने को उलझा लेता है विचारों में, ताकि मौत दिखायी न पड़े। यह भी
सांत्वना की तरकीब है। यह अपने को दूसरी दिशा में लगा लेने का उपाय है।
तो मरता था, बेटे को देखना चाहता था। मौत भी तुम्हें नहीं बताती कि सब
संबंध टूट जाने वाले हैं, सब संबंध मनगढ़ंत हैं। कौन बेटा, कौन बाप! मौत आ
गयी, तुम चलने को तैयार हो गए हो, फिर भी इस संसार में पैर रोपे रखना चाहते
हो। मरता था बाप, बेटे को देखना चाहता था, लेकिन भिक्षु गया था गांव के
बाहर, तो बाप रोता हुआ, अपने बेटे का नाम ले लेकर मर गया। और सौ
स्वर्णमुद्राएँ छोड़ गया। खुद भी जीवनभर धन इकट्ठा किया होगा और अब सब धन
छूटा जा रहा है तो भी अभी उसे समझ में नहीं आया कि धन निर्मूल्य है। अभी वह
धन छोड़ जाता है अपने बेटे के लिए।
अगर बाप में थोड़ी समझ हो तो बेटे के लिए बोध छोड़ जाएगा, धन क्या छोड़
जाना! धन में खुद अपना जीवन गंवाया और अब बेटे के लिए भी उपाय किए जा रहे
हो! अगर बाप में थोडा बोध हो तो अपने जीवन की पूरी असली संपदा—असली संपदा
यानी अनुभव की संपदा—कि धन व्यर्थ है, कि भोग व्यर्थ है, कि दौड व्यर्थ है,
कि दौड़ा धापी, आपाधापी, सब कुछ काम नहीं आती, मौत सब छीन लेती है, ऐसा
सूत्र अपने बेटे को छोड़ जाएगा। मरते वक्त अगर बाप में थोड़ी भी समझ हो तो वह
कह जाएगा कि मेरे बेटे को इतनी बात कह देना कि जो जो मैंने किया, सब
व्यर्थ गया, तू समय मत गंवाना, इसमें मत उलझना।
लेकिन कब बाप ऐसी समझ की बात कह पाते हैं! हालांकि हर बाप समझता है कि
वह समझदार है। उम्र बढ़ने से कोई समझदार नहीं होता, का होने से कोई समझदार
नहीं होता, समझदारी का बुढ़ापे से कुछ लेना देना नहीं है। समझदारी कुछ और ही
बात है। अनुभवों की बहुत बड़ी श्रृंखला से कोई समझदार नहीं होता, लेकिन
अनुभवों के बीच में से सारसूत्र खोज लेने से कोई समझदार होता है।
तुमने एक बार क्रोध किया, तुमने दो बार क्रोध किया, तुमने हजार बार
क्रोध किया, इससे थोड़े ही समझ बढ़ेगी। सच तो यह है कि तुमने हजार बार क्रोध
किया, यह यही बताता है कि तुम्हारी समझ घटी, बढ़ी नहीं। समझदार होते तो एक
बार क्रोध कर लेते और समझ जाते कि बात व्यर्थ है। दुबारा करने की क्या
जरूरत पड़ती! दुबारा करना पड़ा, क्योंकि पहली बार समझ न आयी। तीसरी बार करना
पड़ा, क्योंकि दूसरी बार समझ न आयी। लाख बार करना पड़ा। और जैसे जैसे समझ न
आयी वैसे वैसे तुम्हारा क्रोध करने का अभ्यास बढ़तो गया। आखिर में तुम पाते
हो, क्रोध तो बहुत किया, लेकिन समझे कुछ भी नहीं। लोभ तो बहुत किया, समझे
कुछ भी नहीं। काम में बहुत तडूफे, लेकिन समझे कुछ भी नहीं।
तो उम्र को तुम समझदारी मत समझ लेना। उस भूल में मत पड़ना। इस संसार में
लोग उस भूल में पड़ जाते हैं। लोग सोचते हैं कि उम्र बडी हो गयी तो समझदार
हो गए। समझदारी अनुभव के प्रति जागने से पैदा होती है, मात्र अनुभव की राशि
बड़ी होती चली जाए, इससे पैदा नहीं होती। जो तुम कर रहे हो, जो तुम्हारे
जीवन में हो रहा है, उसे खूब बोधपूर्वक करो, उसे खूब समझकर करो, सब तरफ से
परख करके करो। एक बार जो किया है, फिर उसका खूब विश्लेषण करो, निदान करो कि
क्या मिला, क्या पाया, क्या हुआ? अगर कुछ न पाया हो, तो दुबारा थोड़ी
सावधानी रखो। नहीं तो जाल अंधी आदत का बड़ा हो जाएगा।
मर रहा है बाप, सब संपत्ति छूटी जा रही है, मरते वक्त भी इस व्यर्थ की
संपदा को बेटे के लिए छोड़ जाता है। तुमसे मैं कहूंगा, ऐसा मत करना।
तुम्हारे भी बेटे होंगे, उनके लिए कुछ और बहुमूल्य छोड़ जाना, कोई और बड़ी
वसीयत छोड़ जाना। कुछ दिनों बाद बेटा वापस लौटा भिक्षु दहर गांव आया। तो
उसके छोटे भाई ने रोकर समाचार कहा, उन स्वर्णमुद्राओं को दिया, लेकिन
भिक्षु ने स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं।
यह बात भी अज्ञान की है। अगर स्वर्णमुद्राओं में कुछ भी नहीं है, तो
फेंकने का इतना उत्साह क्या। इसलिए मैं कहता हूं कि घर छोड्कर भागना मत,
क्योंकि घर छोड़ने का उत्साह यही बताता है कि तुम्हें अब भी घर में कुछ
दिखायी पड़ता है। मैं तो कहता हूं घर में कुछ है ही नहीं, भागकर जाना कहा
है? है ही नहीं वहां कुछ, हिमालय पर तुम हो ही, घर में सूना है, कुछ भी
नहीं है वहां।
इसलिए मैं कहता हूं पत्नी को छोड्कर मत भाग जाना। पत्नी की मान्यता गिर
जाए, बस काफी है। पत्नी के प्रति पत्नी भाव गिर जाए, बस काफी है। पत्नी
में भी परमात्मा दिखायी पड़ने लगे, बस काफी है। मेरा तेरा गिर जाए, वही झूठ
है। लेकिन वह झूठ तो नहीं छोड़ते। अगर तुम हिमालय भी भाग गए, तो भी तुम्हारी
पत्नी तुम्हारी है, यह झूठ तो तुम्हारे साथ जाता है, पत्नी छोड़ जाते हो।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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