जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता,
भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान
में…इसका यह मतलब नहीं है कि आपको कल सुबह ट्रेन से जाना हो तो आज टिकिट
नहीं खरीदेंगे। लेकिन कल की टिकिट खरीदनी आज का ही काम है। लेकिन आज ही कल
की गाड़ी में सवार हो जाना खतरनाक है। और आज ही बैठकर कल की गाड़ी पर
क्या-क्या मुसीबतें होंगी और कल की गाड़ी पर बैठकर क्या-क्या होने वाला है,
इस सबके चिंतन में खो जाना खतरनाक है।
नहीं, सेक्स इतना बुरा नहीं है जितना सेक्स का चिंतन बुरा है। सेक्स तो सहज,
प्राकृतिक घटना भी हो सकती है, लेकिन उसका चिंतन बड़ा अप्राकृतिक और पर्वर्जन
है, वह विकृति है। एक आदमी सोच रहा है, सोच रहा है, योजनाएं बना रहा है,
चौबीस घंटे सोच रहा है। और कई बार तो ऐसा हो जाता है, होता है,
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों लोगों के अनुभवों के बाद यह पता
चलता है कि आदमी मानसिक यौन में इतना रस लेने लगता है कि वास्तविक यौन में
उसे रस ही नहीं आता, फिर वह फीका मालूम पड़ता है। चित्त में ही जो यौन चलता
है वही ज्यादा रसपूर्ण और रंगीन मालूम पड़ने लगता है।
चित्त में यौन की इस तरह से व्यवस्था हो जाये तो हमारे भीतर कंफ्यूजन
पैदा होता है। चित्त का काम नहीं है यौन। गुरजिएफ कहा करता था कि जो लोग
यौन के केंद्र का काम चित्त के केंद्र से करने लगते हैं, उनकी बुद्धि
भ्रष्ट हो जाती है। होगी ही, क्योंकि उन दोनों के काम अलग हैं। अगर कोई
आदमी कान से भोजन करने की कोशिश करने लगे तो कान तो खराब होगा ही और भोजन
भी नहीं पहुंचेगा। दोनों ही उपद्रव हो जाएंगे।
व्यक्ति के शरीर में हर चीज का सेंटर है। चित्त काम का सेंटर नहीं है।
काम का सेंटर मूलाधार है। मूलाधार को अपना काम करने दें। लेकिन चित्त को,
चेतना को, अभी उस काम में मत लगायें, अन्यथा चेतना उस काम से ग्रस्त,
आबसेस्ड हो जाएगी।
इसलिए आदमी आबसेस्ड दिखायी पड़ता है। वह नंगी तस्वीरें देख रहा है बैठकर,
और मूलाधार को नंगी तस्वीरों से कोई भी संबंध नहीं है। उसके पास आंख भी
नहीं है। आदमी नंगी तस्वीरें देख रहा है, यह मन से देख रहा है। और मन में
तस्वीरों का विचार कर रहा है, योजनाएं बना रहा है, कल्पनाएं कर रहा है,
रंगीन चित्र बना रहा है। यह सब के सब मिल कर उसके भीतर सेंटर का कंफ्यूजन
पैदा कर रहे हैं। मूलाधार का काम चित्त करने लगेगा, पर मूलाधार तो चित्त का
काम नहीं कर सकता है। बुद्धि भ्रष्ट होगी, चित्त भ्रमित होगा, विक्षिप्त
होगा।
पागलखाने में जितने लोग बंद हैं उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग चित्त से
यौन का काम लेने के कारण पागल हैं। पागलखानों के बाहर भी जितने लोग पागल
हैं, अगर उनके पागलपन का हम पता लगाने जायें तो हमें पता चलेगा कि उसमें भी
नब्बे प्रतिशत यौन के ही कारण हैं। उनकी कविताएं पढ़ें तो यौन, उनकी
तस्वीरें देखें तो यौन, उनकी पेंटिंग्स देखें तो यौन, उनका उपन्यास देखें
तो यौन, उनकी फिल्म देखने जायें तो यौन, उनका सब कुछ यौन से घिर गया है।
आब्सेशन है यह, यह पागलपन है।
अगर पशुओं को भी हमारे संबंध में पता होगा तो वे भी हम पर हंसते होंगे
कि आदमी को क्या हो गया है? अगर हमारी कविताएं वे पढ़ें, भले ही कालिदास की
हों, तो पशुओं को बड़ी हैरानी होगी कि इन कविताओं की जरूरत क्या है? इनका
अर्थ क्या है? वे हमारे चित्र देखें, चाहे पिकासो के हों, तो उन्हें बड़ी
हैरानी होगी कि इन चित्रों का मतलब क्या है? ये स्त्रियों के स्तनों को
इतना चित्रित करने की कौन-सी आवश्यकता है? क्या प्रयोजन है?
आदमी जरूर कहीं पागल हो गया है। पागल इसलिए हो गया है कि जो काम मूलाधार
का है, सेक्स-सेंटर का है, उसे वह इंटलेक्ट से ले रहा है। इसलिए इंटलेक्ट
से जो काम लिया जा सकता था, उसका तो समय ही नहीं बचता है।
बुद्धि परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकती है, लेकिन वह मूलाधार का काम कर
रही है। चेतना परम जीवन का अनुभव कर सकती है, लेकिन चेतना सिर्फ फैंटेसीज
में जी रही है, सेक्सुअल फैंटेसीज में जी रही है, वह सिर्फ यौन के चित्रों
में भटक रही है।
इसलिए मैंने कहा, अतीत का मत सोचें, भविष्य का मत सोचें। सेक्स के संबंध
में तो बिलकुल ही नहीं। अभी जीयें और जितना सेक्स पल में आ जाता हो उसे आने
दें, घबरायें मत, लेकिन उस यौन के समय में भी जो मैंने ऊर्ध्वगमन की यात्रा
की बात कही, अगर उसका थोड़ा स्मरण करें तो बहुत शीघ्र उस शक्ति का ऊपर
प्रवाह शुरू हो जाता है। और जैसी धन्यता उस प्रवाह में अनुभव होती है वैसी
जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती।
ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया
ओशो
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