इसीलिए पैदा होता है,
आप मानते तो हैं अपने को गौरीशंकर और सिद्ध नहीं कर पाते। आप मानते
तो हैं कि जगत के केंद्र हैं, लेकिन सिद्ध नहीं कर पाते। फिर
हीनता पैदा होती है। हीनता पैदा ही उन्हें होती है, जिनके मन
में श्रेष्ठ होने का भाव है। उलटा लगेगा; लेकिन हमने जीवन को
ऐसा ही उलटा कर लिया है कि उसमें सीधी-साफ बातें कहनी हों, तो
उलटी मालूम होती हैं। जिस आदमी को भी श्रेष्ठ होने का भाव है, उसे हीनता का बोध पैदा हो जाएगा। उसे लगेगा मैं कुछ भी नहीं हूं, क्योंकि मानता है वह इतना अपने को और उतना सिद्ध नहीं कर पाता है। फिर
पीड़ा पकड़ती है मन को कि मैं कुछ भी न कर पाया।
एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?
पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता
है? मैं कुछ
हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण
नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के
आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है,
तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो।
उसका भरोसा अपने पर पक्का है।
आत्म-विश्वास की जरूरत क्या है? क्यों परेशानी होती है कि आत्म-विश्वास नहीं है?
क्योंकि तुलना है मन में कि दूसरा आदमी अपने पर ज्यादा विश्वास करता
है, वह सफल हो रहा है; मैं अपने पर
विश्वास नहीं कर पाता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूं। वह इतना
कमा रहा है; मैं इतना कम कमा रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा
रहा है, राजधानी निकट आती जा रही है; मैं
बिलकुल पीछे पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया हूं। आत्म-विश्वास कैसे पैदा हो? कैसे अपने को बलवान बनाऊं? क्या मतलब हुआ? आत्म-विश्वास का मतलब हुआ कि आप दूसरे से अपनी तुलना कर रहे हैं और इसलिए
परेशान हो रहे हैं।
आप आप हैं, दूसरा दूसरा है। अगर आप जमीन पर अकेले होते, तो क्या
कभी आपको पता चलता कि आत्म-विश्वास की कमी है? अगर आप अकेले
होते पृथ्वी पर, तो क्या आपको पता चलता कि मुझमें हीनता का
भाव है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है? कुछ
भी पता न चलता। तब आप साधारण होते। साधारण का मतलब, आपको यह
भी पता न चलता कि आप साधारण हैं। सिर्फ होते। जिसको यह भी पता चलता है कि मैं साधारण
हूं, उसने असाधारण होना शुरू कर दिया। आप हैं, इतना काफी है। आत्म-विश्वास की जरूरत नहीं है, आत्मा
पर्याप्त है। आप हैं। क्यों तौलते हैं दूसरे से?
फिर दिक्कतें खड़ी होंगी। किसी की नाक आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी
की आंख आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी की लंबाई
ज्यादा है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी ने मकान बड़ा बना लिया,
दीनता पैदा हो जाएगी। फिर हजार दीनताएं पैदा हो जाएंगी। फिर जितने
लोग आपको दिखाई पड़ेंगे, उतनी दीनताएं आपके भीतर पैदा हो
जाएंगी। उनका जोड़ इकट्ठा हो जाएगा। और आपकी मान्यता है कि आप हैं गौरीशंकर! अब बड़ी
कठिनाई खड़ी होगी। आप हैं जगत के सबसे बड़े शिखर; और हर आदमी
जो मिलता है, वह बता जाता है कि आप एक खाई हैं, एक खड्ड हैं। तो आपकी यह स्थिति कि खड्ड-खाई चारों तरफ और आपका यह भाव कि
मैं हूं गौरीशंकर का शिखर, इन दोनों के बीच जो खिंचाव पैदा होगा,
वही आदमी की बीमारी है। वही रोग है, जिसमें हर
आदमी सड़ जाता है, मर जाता है, मिट जाता
है। दूसरे से तौलते क्यों हैं?
ताओ उपनिषद
ओशो
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