.....एक-एक
ईंट को, ताकि धीरे-धीरे यह मन का तुम्हारा जो मकान है,
भूमिसात हो जाए, गिर जाए। फिर जो शेष रह जाएगा,
शून्य, दीवालों से मुक्त आकाश, वही तुम हो। तत्वमसि! उससे फिर मिलन है। क्योंकि वही मैं हूं। वही यह सारा
अस्तित्व है। अभी तो तुमने बात ही गलत कर दी। अभी तो तुमने जो नतीजा लिया वह इतना
खतरनाक है कि जितने जल्दी चेत जाओ उतना अच्छा है, अन्यथा
जल्दी ही मेरे दुश्मन हो जाओगे।
मेरे दुश्मन होना बहुत आसान है, मेरे दोस्त होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मेरे
दोस्त होने के लिए अहंकार को गंवाना होता है। और इसलिए तो मैं इतने दुश्मन अकारण
ही पैदा कर लेता हूं। करना नहीं चाहता, मगर वे हो जाते हैं।
क्योंकि वे अहंकार खोने को तैयार नहीं। वे चाहते थे मैं उनके अहंकार में पोषण करूं,
थोड़ी और सजावट दे दूं, थोड़ा और शृंगार कर दूं,
उनके अहंकार को और थोड़े नए वस्त्र पहना दूं, उनके
अहंकार को और थोड़े विजय सिंहासन पर चढ़ा दूं, थोड़ा मोर-मुकुट
बांध दूं तो वे मुझसे राजी होते, मेरे मित्र होते।
इधर कितने लोग मेरे साथ आए। इन बीस वर्षों की कथा जिस दिन पूरी
समझी जाएगी, हैरानी
की होगी। कितने हजारों लोग मेरे साथ आए और गए। अलग-अलग कारणों से साथ आए, मगर गए सब एक ही कारण से। मेरे साथ जैनों का बड़ा समूह था, क्योंकि उनको लगा कि उनके विचारों से मेरे विचार मेल खाते हैं। फिर वह
समूह छंट गया। फिर उनमें से वे ही थोड़े से जैन बच रहे, जिन्होंने
इस तरह नहीं सोचा था; जो मेरे शून्य के साथ जुड़े थे, मेरे विचार के साथ जिन्होंने कोई नाता नहीं बनाया था; जो मेरे साथ होने को अपने विचार छोड़े थे, अपने
विचारों को पोषण नहीं दिया था। थोड़े से। अर्थात जो न होने को तैयार थे, जो अपने जैन होने तक को पोंछ डाले को तैयार थे--वे मेरे साथ रुके, बाकी तो दुश्मन हो गए।
मेरे साथ गांधीवादियों का बड़ा हुजूम था। थोड़ी दूर साथ चले, जब तक उन्हें लगा कि मेरे
विचार उनसे मेल खाते हैं। फिर जैसे ही मैंने कुछ बातें कहीं, वे चौंके, घबड़ाए, बेचैन हुए,
दुश्मन हो गए। मेरे साथ वेदांती थे। जब तक उन्हें ऐसा लगा कि मैं
वेदांत की बात कर रहा हूं, तब तक मेरे साथ थे। जैसे ही
उन्हें लगा कि यह बात तो कुछ आगे निकल गई, यह बात तो कुछ और
हो गई--छोड़ भागे, दुश्मन हो गए।
बहुत तरह के लोग मेरे साथ थे। समाजवादी मेरे साथ थे, साम्यवादी मेरे साथ थे।
लेकिन उनमें से कुछ थोड़े से लोग टिकते रहे वे थोड़े से लोग एक ही कारण से टिके। जो
गए, अलग-अलग कारणों से आए थे, अलग-अलग
कारणों से गए, उनके अलग-अलग विचार थे, कभी
मेल खा गया तो साथ हो लिए, कभी मेल नहीं खाया तो दुश्मन हो
गए। लेकिन जो टिके वे एक ही कारण से टिके--जो अपने को मिटाने को राजी थे।
बहुरि न ऐसो दांव
ओशो
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