मेरे प्रिय आत्मन्!
इस देश के दुर्भाग्य की कथा बहुत लंबी है। समाज का जीवन, समाज की चेतना इतनी कुरूप,
इतनी विकृत और विक्षिप्त हो गई है जिसका कोई हिसाब बताना भी कठिन
है। और ऐसा भी मालूम पड़ता है कि हमारी संवेदनशीलता भी कम हो गई है, यह कुरूपता हमें दिखाई भी नहीं पड़ती। जीवन की यह विकृति भी हमें अनुभव
नहीं होती। और आदमी रोज-रोज आदमियत खोता चला जाता है, उसका
भी हमें कोई दर्शन नहीं होता।
ऐसा हो जाता है। लंबे समय तक किसी चीज से परिचित रहने पर मन
उसके अनुभव करने की क्षमता, सेंसिटिविटी खो देता है। बल्कि उलटा भी हो जाता है; यह
भी हो जाता है कि जिस चीज के हम आदी हो जाते हैं वह तो हमें दिखाई नहीं पड़ती,
ठीक चीज हमें दिखाई पड़े तो वह भी हमें दिखाई पड़नी मुश्किल हो जाती
है।
एक मछली बेचने वाला आदमी एक सुगंधियों के बाजार से गुजरता था।
उसे मछलियों की बास की आदत थी,
सुगंध का कोई अनुभव न था। जैसे ही उसको सुगंध आनी शुरू हुई, उसने कपड़े से अपनी नाक बंद कर ली; सोचा कि बड़ी तकलीफ
है, यहां कैसी दुर्गंध चली आती है! वह बाजार तो सुगंध का था।
वह तो उस देश की सबसे कीमती से कीमती सुगंध, परफ्यूम वहां
बिकती थीं। जैसे-जैसे बाजार के भीतर चला, उसके प्राण छटपटाने
लगे। फिर वह बेहोश होकर गिर पड़ा। दुकानदार दौड़ कर आ गए। उन्होंने सोचा कि शायद थक
गया है, गर्मी से पीड़ित है। तो उन्होंने अच्छी सुगंधियां
लाकर उसे सुंघानी शुरू कीं कि शायद होश आ जाए। अब उन बेचारों को पता भी नहीं कि वह
सुगंध से ही पीड़ित होकर बेहोश हो गया है। जैसे वे उसे सुगंध सुंघाने लगे, वह और हाथ-पैर छटपटाने लगा। वे और सुगंध सुंघाने लगे।
और तभी वहां से एक दूसरा मछुआ गुजरता था। उसने कहा, ठहर जाओ! उस आदमी के हाथ के
झोले को देखते हो? उसकी टोकरी देखते हो? वह कोई मछुआ है, मैं भलीभांति जानता हूं। हटो,
हटा लो अपनी सुगंधियों को!
उसने उसकी टोकरी पर,
जिसमें वह मछलियां बेच कर लौट रहा था, थोड़ा सा
पानी छिड़क दिया और टोकरी उसकी नाक के पास रख दी। उसने आंख खोली और कहा, दिस इज़ रियल परफ्यूम! यह है सुगंध असली! पागल न मालूम क्या-क्या सुंघा रहे
थे मुझे।
समाज की संवेदनशीलता भी इसी तरह मर जाती है।
इस देश में ऐसा हुआ। इस देश में कोई सैकड़ों वर्षों के चिंतन ने
मनुष्य को सामूहिक चेतना, सोशल कांशसनेस से बिलकुल ही तोड़ दिया। हिंदुस्तान की सारी शिक्षाएं
व्यक्ति को निपट स्वार्थी बनाती हैं, उसे सामूहिक चेतना का
अंग नहीं बनातीं। इस जमीन पर वह आदमी अपने लिए धन कमाता है, अपने
लिए मकान बनाता है; परलोक में अपने मोक्ष को खोजता है,
अपने स्वर्ग को खोजता है। दूसरे से कोई संबंध नहीं। अगर हिंदुस्तान
के शिक्षकों ने यह भी समझाया है कि दूसरों पर दया करो, दूसरों
को दुख मत दो, तो उसका भी कारण यह नहीं है कि दूसरों को दुख
देना बुरा है। उसका कारण यह है कि दूसरों को तुम दुख दोगे तो नरक चले जाओगे।
दूसरों को दुख न दोगे तो स्वर्ग चले जाओगे। बेसिक मोटिव, जो
बुनियादी प्रेरणा है वह मैं स्वर्ग कैसे चला जाऊं, मैं मोक्ष
कैसे पा लूं, यह है। दूसरे को दुख मत दो, इसमें कोई बुनियादी बुराई नहीं है, बुराई इसमें है
कि कहीं मेरा मोक्ष न खो जाए।
हिंदुस्तान ने अहिंसा की इतनी बातें कीं, लेकिन हिंदुस्तान में प्रेम
की कोई प्रक्रिया विकसित नहीं हो सकी। इस अहिंसा की शिक्षा में कोई बुनियादी भूल
रही होगी। अहिंसा की शिक्षा कहती है: हिंसा मत करो। क्योंकि हिंसा करने से स्वर्ग
खोता है, मोक्ष खोता है; हिंसा करने से
पाप लगता है; पाप बंधन में ले जाते हैं।
अहिंसा की शिक्षा यह नहीं कहती कि दूसरे को दुख पहुंचता है, इसका विचार करो; कि दूसरे के प्रति प्रेम करो कि उसको दुख न पहुंच सके। दूसरे का चिंतन
नहीं है अहिंसा की शिक्षा में, अपना ही चिंतन है, मेरे ही अहंकार का, मेरे ही स्वार्थ का अंतिम चिंतन
है। इसलिए हिंदुस्तान ने सबसे पहले दुनिया में अहिंसा की शिक्षा खोज ली, लेकिन हिंदुस्तान में प्रेम का कोई भी पता नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात
है! हम इतनी अहिंसा की बात करते हैं, हम से ज्यादा
प्रेम-शून्य लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं हैं। कुछ बात है।
हमारी अहिंसा की शिक्षा भी बुनियाद में मेरे हित पर खड़ी हुई है, दूसरे का कोई चिंतन उसमें
नहीं है। अगर हमें पता चल जाए कि दूसरे को कष्ट देने से स्वर्ग जाने में कोई बाधा
नहीं पड़ती, तो हम कष्ट देने में फिर कोई परेशानी अनुभव नहीं
करेंगे। और अगर हमें यह पता चल जाए कि दूसरे को कष्ट देने से स्वर्ग जाने में
सुविधा मिलती है, तो हम पूरी तरह से कष्ट देने को तैयार हो
जाएंगे।
अनंत की पुकार
ओशो
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