मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को
समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बस,
निरंतर एक ही चिंता में लगे रहते हैं कि पाच लाख का नुकसान हो गया।
पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझू में नहीं आता कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ
है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहा, हुआ है नुकसान,
दस लाख का लाभ होने की आशा थी, पांच का ही लाभ
हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख बिलकुल हाथ से गए।
अपेक्षा से भरा हुआ चित्त,
लाभ हो तो भी हानि अनुभव करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्त,
हानि हो तो भी लाभ अनुभव करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया,
और जितना भी मिल गया, वह भी परमकृपा है,
वह भी अस्तित्व का अनुदान है।
तो गृहस्थ हम बनाते थे व्यक्ति को, जब वह भीतर के साक्षी की
थोड़ी—सी झलक पा लेता था। फिर पत्नी होती थी, लेकिन वह कभी पति नहीं हो पाता था। फिर बच्चे होते थे, वह उनका पालन करता था, लेकिन कभी पिता नहीं हो पाता
था। मकान बनाता था, दुकान चलाता था, लेकिन
सब ऐसे जैसे किसी नाटक के मंच पर अभिनय कर रहा हो। और प्रतीक्षा करता था उस दिन की,
कि वह जो भीतर की यात्रा पच्चीस वर्ष की उम्र में अधूरी छूट गई थी,
जल्दी से उसे पूरा करने का कब अवसर मिले। तो पचास वर्ष की उम्र में
वह वानप्रस्थ हो जाता था।
वानप्रस्थ का अर्थ था कि अब उसकी नजर फिर जंगल की तरफ। जंगल से
ही शुरू हुई थी उसकी यात्रा, अब वह फिर जंगल की तरफ देखने लगा। लेकिन अभी जंगल चला नहीं जाता था,
क्योंकि उसके बच्चे पच्चीस वर्ष के होकर गुरुकुल से वापस लौट रहे
होंगे। और अभी बाप एकदम छोड्कर चला जाए, तो बच्चे बिलकुल
मुश्किल में पड़ जाएंगे। उन्हें भीतर का तो थोड़ा—सा अनुभव हुआ
है, लेकिन बाहर के उपद्रव के जाल की शिक्षा भी चाहिए।
तो बाप घर रुकता था,
पच्चीस वर्ष। पचहत्तर वर्ष की उम्र तक वह घर रुकता। उसका मुख जंगल
की तरफ होता; वह घर से अपना डेरा उखाड़ने लगता। लेकिन बच्चे
लौटते हैं आश्रम से, उनको इस संसार की जो व्यवस्था है,
इसका जो उसका अपना अनुभव है, वह उसे दे देना
है। और जब वह पचहत्तर साल का होता, तो वह संन्यस्त हो जाता।
वह वापस जंगल में लौट जाता। क्योंकि जब वह पचहत्तर साल का होता, तब उसके बच्चे पचास साल के करीब पहुंचने लगते। उनके वानप्रस्थ होने का
वक्त आ जाता।
यह जो पचहत्तर साल की अवस्था में संन्यस्त होकर चले जाते लोग, ये गुरु हो जाते। छोटे
बच्चे इनके पास पहुंचते। ऐसा हमारा वर्तुल था। जो सारे जीवन की सब अवस्थाओं को
देखकर लौट आया है जंगल में, उसके पास हम अपने छोटे बच्चों को
भेज देते थे कि उससे वे जीवन का सार और जीवन की कुंजी लेकर आ जाएं।
शिक्षक और विद्यार्थी के बीच इतना फासला तो होना ही चाहिए। आज
जगत में बड़ी असुविधा है, क्योंकि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई सम्मान का भाव नहीं है। हो भी
नहीं सकता, क्योंकि फासला बिलकुल नहीं है। कई बार तो ऐसा है
कि हो सकता है विद्यार्थी ज्यादा अनुभवी हो शिक्षक से। और अगर थोड़ा बहुत फासला भी
है तो वह इतना इंच दो इंच का है कि उसमें कोई आदरभाव पैदा नहीं होता।
लेकिन एक पचहत्तर साल का बूढ़ा, जिसने जीवन के ब्रह्मचर्य का, गार्हस्थ का, वानप्रस्थ होने का और संन्यस्त होने का
सारा अनुभव संजो लिया है, जब छोटे बच्चे उसके पास जाते तो
उन्हें लगता कि वे किसी हिमाच्छादित शिखर के पास आ गए हैं। उसकी चोटी बड़ी ऊंची
होती, आकाश छूती! वहा सम्मान सहज होता।
लोग कहते हैं,
गुरु का आदर करना चाहिए। और मैं कहता हूं जिसका आदर करना ही पड़े,
वही गुरु है। करना चाहिए का कोई सवाल नहीं उठता। और जहां करना चाहिए
का सवाल उठता है, वहां कोई आदर हो नहीं सकता। आदर कोई थोपा
नहीं जा सकता, उसकी कोई मांग नहीं हो सकती।
कठोपनिषद
ओशो
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