शरीर ध्वनि का ही जोड़ है। और ओंकार से अद्भुत ध्वनि नहीं। यह दस
मिनट ओंकार का उच्चार जोर से, शरीर के माध्यम से, फिर आंख बंद कर लेना। ओंठ बंद कर
लेना। जीभ तालू से लग जाए, इस तरह मुंह बंद कर लेना कि
बिलकुल बंद है, कोई जगह न बची; क्योंकि
अब जीभ का उपयोग नहीं करना है, ओंठ का उपयोग नहीं करना है।
दूसरा कदम है,
दस मिनिट तक अब ओम का उच्चार करना भीतर मन में। अभी तक कक्ष था
चारों तरफ, अब शरीर है चारों तरफ। अभी तक मकान के भीतर थे
तुम, अब शरीर मकान है। दूसरे दस मिनिट में अब तुम अपने भीतर
मन में. ही गुजाना। ओंठ का, जीभ का, कण्ठ
का कोई उपयोग न करना। सिर्फ मन में ओम..... ओम्. .लेकिन गति वही रखना। तीव्रता वही
रखना। जैसे तुमने कमरे को भर दिया था ओंकार से, ऐसे ही अब
शरीर को भीतर से भर देना ओंकार से—कि शरीर के भीतर ही कंपन
होने लगे, ओम. दोहरने लगे, पैर से लेकर
सिर तक। और इतनी तेजी से यह ओम करना है, जितनी तेजी से तुम
कर सको और दौ ओम के बीच जरा भी जगह मत छोड़ना क्योंकि मन का एक नियम है कि वह एक
साथ दो विचार नहीं कर सकता। एक साथ दो विचार असंभव हैं।
अगर तुमने ओम इतने जोर से गुंजाया कि दो ओम के बीच में जरा—सी भी संधि न बची तो कोई
विचार न आ सकेगा। अगर जरा—सी संधि बची तो विचार आ जायेगा;
उसी संधि में जगह बना लेगा। तो संधि मत छोड़ना; संधि—शून्य उच्चार। इसकी भी फिक्र न करना कि एक ओम
पर दूसरा चढ़ा जा रहा है। जैसे कभी मालगाड़ी टकरा जाती है, एक
डब्बे के ऊपर दूसरा डब्बा हो जाता है, ऐसा तुम ओम को एक
दूसरे के ऊपर हो जाने देना। जगह बीच में मत छोड़ना और ध्यान रखना, शरीर का उपयोग नहीं करना है इसमें। आंख इसलिए अब बंद कर ली। शरीर थिर है।
मन में ही गज करनी है। शरीर से ही टकराकर गज मन पर वापस गिरेगी, जैसे कमरे से टकराकर शरीर पर गिर रही थी। उससे शरीर शुद्ध हुआ; इससे मन शुद्ध होगा। और जैसे—जैसे गज गहन होने लगेगी,
तुम पाओगे कि मन विसर्जित होने लगा। एक गहन शांति, जैसी तुमने कभी नहीं जानी, उसका स्वाद मिलना शुरू हो
जायेगा।
दस मिनिट तक तुम भीतर गुंजार करना। दस मिनिट के बाद गर्दन झुका
लेना कि तुम्हारी दाढी छाती को छूने लगे। दो—चार दिन तकलीफ भी मालूम होगी गर्दन में, उसकी फिक्र
मत करना, वह चली जायेगी। तीसरे चरण में दाढ़ी छूने लगे;
जैसे गर्दन कट गयी, उसमें कोई जान न रही। और
अब तुम मन में भी गुंजार मत करना ओम का। अब तुम सुनने की कोशिश करना; जैसे ओंकार हो ही रहा है, तुम सिर्फ सुननेवाले हो,
करनेवाले नहीं। क्योंकि मन के बाहर तभी जा सकोगे, जब कर्ता छूट जायेगा। अब तुम साक्षी हो जाना। अब तुम गर्दन झुकाकर यह
कोशिश करना कि भीतर ओंकार चल रहा है।
गालिब का बहुत प्रसिद्ध वचन है: 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गर्दन
स्थायी, देख ली।’ वह गर्दन झुकाना
जरूरी है। जैसे ही गर्दन झुकती है, दिल का आईना सामने आ जाता
है। और उस परमप्रिय की तस्वीर वहां है, प्रतिबिम्ब वहां है।
लेकिन गर्दन झुकाना तुम्हें नहीं आता। तुम तो गर्दन अक्काकर चलते हो। जहां गर्दन
झुकाने की बात आयी, वहीं तुम और तन जाते हो। तुम अगर
परमात्मा को खो रहे हो, सिर्फ एक अकड़ से कि तुम गर्दन झुकाने
को राजी नहीं; समर्पण की तुम्हारी तैयारी नहीं। यह तो प्रतीक
है। गर्दन को लटका देना है, जैसे कट गयी, ताकि तुम झुक सको। और जैसे ही गर्दन झुकती है, भीतर
देखना आसान हो जाता है। जैसे ही गर्दन झुकती है, विचार मुश्किल
हो जाते हैं।
अब तुम सुनने की कोशिश करना। अभी तक तुम मंत्र का उच्चार कर रहे
थे; अब तुम
मंत्र के साक्षी बनने की कोशिश करना। और तुम चकित होओगे कि तुम पाओगे कि भीतर
सूक्ष्म उच्चार चल रहा है। वह ओम जैसा है ठीक ओम नहीं है; क्योंकि
भाषा में उसे लाना कठिन है; ठीक ओम् जैसा है। तुम अगर शाति
से सुनोगे तो अब वह तुम्हें सुनायी पड़ेगा। शरीर से तुम हट गये। पहले मंत्र के
प्रयोग ने तुम्हें शरीर से काट दिया। दूसरे मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें मन से काट
दिया। अब तीसरा मंत्र का प्रयोग साक्षी—भाव का है।
और इसलिए ओंकार से अद्भुत कोई मंत्र नहीं है। ओम् से अद्भुत कोई
मंत्र नहीं है। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध प्यारे
हैं, लेकिन मन के बाहर न ले जा सकेंगे, क्योंकि उनकी प्रतिमा, उनका रूप है। ओम अरूप है। और
बुद्ध, कृष्ण, जीसस, उनके साथ तुम्हारा लगाव है; भाव है, प्रेम है, आसक्ति है, मोह है।
वह मन के बाहर न ले जाने देगा। ओम बिलकुल अर्थहीन है। ओम बड़ा अनूठा है। इसमें कोई अर्थ
नहीं है। न इसका कोई रूप है। न इसकी कोई प्रतिमा है। न इसकी कोई आकृति है। यह
वर्णमाला का हिस्सा भी नहीं है। और यह निकटतम है उस ध्वनि के, जो भीतर सतत चल रही है; जो तुम्हारे जीवन का स्वभाव
है। जैसे कि झरने कलकल का नाद करते हैं—उन्हें करना नहीं
पड़ता, उनके बहने से ही कलकल नाद होता रहता है; जैसे हवा गुजरती है वृक्षों से तो एक सरसराहट की आवाज होती है—वह उसे करनी नहीं पड़ती, उस के गुजरने से और वृक्षों
की टकराहट से हो जाती
है। ऐसे ही तुम्हारा होना ही इस ढंग का है कि उसमें ओम गज रहा
है। वह तुम्हारे होने की ध्वनि है—दि साऊंड ऑफ यूअर बीइंग।’
शिव सूत्र
ओशो
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