Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Friday, May 4, 2018

एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधीजी की भांति हरिजनों के घर में क्यों नहीं ठहरते हैं?




एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। जर्मनी का सबसे बड़ा पादरी आर्च प्रीस्ट एक छोटे-से गांव के चर्च का निरीक्षण करने गया था। नियम था कि जब वह किसी चर्च की निरीक्षण करने जाए तो चर्च कि घंटियां उसके स्वागत में बजाई जाती थीं। लेकिन उस गांव के चर्च की घंटियां न बजीं। जब वह चर्च के भीतर पहुंचा तब उसने उस चर्च के पादरी को पूछा कि मेरे स्वागत में घंटियां बजती हैं हर चर्च की। तुम्हारे चर्च की घंटी क्यों नहीं बजी? उस पादरी की आदत थी, कि वह कोई भी कारण बताए, तो उसका तकिया कलाम था, वह इसी में शुरू करता था, कि इसके हजार कारण है। उसने कहा--इसके हजार कारण हैं। पहला कारण तो यह कि चर्च में घंटी भी नहीं है। उस आर्च प्रीस्ट ने कहा, बाकी कारण रहने दो, उनके बिना भी चल जाएगा। यह एक ही कारण काफी है।


मुझसे आप पूछते हैं, मैं हरिजन के घर क्यों नहीं ठहरता? पहली तो बात यह कि मेरी दृष्टि में कोई हरिजन नहीं है। उसको ढूंढूं कहां? आदमी हैं। हरिजन नहीं हैं। गांधीजी की दृष्टि में हरिजन होंगे, इसलिए वह हरिजन का घर ढूंढूं लेते हैं। यह ध्यान रहे, अछूत और शूद्र बड़े अच्छे शब्द थे। यह हरिजन बहुत खतरनाक शब्द है। अछूत और शूद्र में एक चोट थी, एक दर्द था, एक पीड़ा थी। अछूत और शूद्र अपने को कोई कहने में घबराता था--बुरा मानता था। यह हरिजन बहुत खतरनाक शब्द है। इसे कहने में अकड़ मालूम पड़ती है, कि हम हरिजन है। बोल वही है। बीमारी का नाम बदल देने से बीमारियां नहीं बदल जाती है। और जहर के ऊपर शक्कर लगा देने से सिर्फ मरने की सुविधा हो जाती है। मरने में आसानी हो आती है। और कुछ भी नहीं होता। ये हरिजन जैसे शब्द बड़े खतरनाक है। किसी भी तरह से हरिजन को रिकग्नेशन देना हरिजन को बचाने की तरकीब है। चाहे उसको गाली दो, और चाहे सम्मान दो। और चाहे उसे छुओ मत और चाहे उसके घर ठहरने का आयोजन। करो। लेकिन हरिजन की स्वीकृति, रिकग्नेशन, कि यह आदमी हरिजन है, छूने योग्य नहीं है। इसके घर ठहराना जरूरी है, बड़ी ऊंची बात है। इन दोनों स्थितियों में हरिजन आता है और बचाया जाता है। हरिजन को मिटाना है--बचाना है। 


लेकिन गांधीजी के साथ एक कठिनाई थी। बड़ी बीमारी--वह हिंदू नाम की जो बीमारी है, उसके वह बड़े प्रेमी थे। उसी बीमारी की यह छोटी संतति, यह जो हरिजन है। यह जो शूद्र है। अदभुत है। उसी बड़ी बीमारी की पैदाइश है। उस बड़ी बीमारी को तो वह बचाना चाहते थे और उसी बड़ी बीमारी के भीतर इस छोटी बीमारी के लिए भी कोई समझौते का रास्ता खोजना चाहते थे।


सच तो यह है, कि हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ये सारी बीमारियां मिटनी चाहिए। और जो लोग हिंदू समाज के भीतर दुःखी अनुभव करते थे उन्हीं हिम्मत जुटानी चाहिए, कि वह कहें कि हम हिंदू नहीं है। क्या जरूरत है उन्हें हिंदू होने की? हिंदू होने से उन्हें क्या दिया है? लेकिन अगर वे हिम्मत भी जुटाए कि हिंदू नहीं है, तो वह कहेंगे कि हम मुसलमान होते है। हम ईसाई होते है। हम बौद्ध होते हैं। 

एक जेल से छूटे नहीं कि वह फौरन पूछते हैं कि हम किस जेल में जाए? अंबेडकर ने थोड़ी हिम्मत जुटाई और कहा कि छोड़ दो हिंदू धर्म। लेकिन हिम्मत पूरी नहीं है वह भी। अंबेडकर ने इधर हिम्मत जुटायी--तत्काल दूसरे जेल में भिजवा दिया। हो सकता है--दूसरा जेल थोड़ा कम्फर्टेबल हो। कम्फर्टेबल जेल और खराब होते हैं। क्योंकि उनको छोड़ने का मन भी नहीं होता। हिंदू से हटो--बौद्ध हो जाओ। ईसाई हो जाओ, मुसलमान हो जाओ। वह भी सब पागल घर हैं। भी एक पागल घर है, हरिजनों को--अछूतों को, शूद्रों का, मुक्त हो जाना चाहिए सब जेलों से। कह देना चाहिए--हम सिर्फ निपट आदमी है। और हम किसी के साथ जुड़ते नहीं। लेकिन वह भी उत्सुक हैं कि उनको हरिजन माना जाए। वह भी बड़े उत्सुक हैं कि उनको सम्मान दिया जाए हरिजन होने का। अपमान उन्होंने काफी झेल लिया है, अब बदले में सम्मान चाहते हैं। लेकिन ध्यान रहे--अपमान हो या सम्मान हो। हरिजन होने से आदमी आप नहीं हो सकते हैं।


और इस समय दुनिया को आदमियों की जरूरत है। एक प्रयोग करना चाहिए, कि हम कारागृह में बाहर होंगे। जब तक पृथ्वी पर इतने हिम्मतवर लोग कुछ इकट्ठे नहीं होते जो सब जेलखानों को इंकार कर दें, और कहें कि हम बस सिर्फ आदमी है। यह हिंदुस्तान की सरकार है। सिकुलर कहलाती है अपने को।  धर्म निरपेक्ष कहलाती है। लेकिन यहां भी नौकरी के फार्म पर लिखा रहता है--आपका धर्म क्या है? क्या पागलपन है? धर्म पूछने को जरूरत क्या है? एक आदमी का आदमी होना काफी है। स्कूल में भर्ती करो लड़के को, तो फार्म में, लिखा रहता है कि धर्म क्या है? यह क्या पागलपन है? धर्म पूछने की क्या जरूरत है? आदमी होना काफी है। सेंसेस होगा मुल्क की मतगणना होगी जनगणना होगी--उसमें भी भरा रहेगा--कौन किस धर्म को मानता है? फिर यह बेईमानी की सिकुलरेज्म है। यह कोई ठीक सिकुलरेज्म न हुआ। 


धर्म निरपेक्ष होने का मतलब है कि हम इस देश आदमी को सिर्फ आदमी मानते हैं। और हम कोई दूसरी सीमा और कोई विशेषण उसके ऊपर नहीं लगाते। अगर थोड़ी हिम्मत जुटायी जाए तो हिंदुस्तान आदमियों का समाज बन सकता है। लेकिन सब तरफ वही आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़े करने का बड़ा आग्रह है। गांधीजी ने कितनी मेहनत की जिंदगी भर कि हिंदू-मुसलमान एक हो जाए। लेकिन पहले बीमारी को स्वीकार करते हैं। फिर एक करना चाहते हैं। पहले कहते हैं--हिंदू भी ठीक--मुसलमान भी ठीक। दोनों एक हो जाए। दोनों गलत है। और दोनों के एक होने की जरूरत नहीं है। दोनों के मिटने की जरूरत है। वह दोनों मिटेंगे तो आदमियत एक होगी। दोनों एक नहीं हो सकते। हिंदू-मुसलमान एक नहीं हो सकते। उनका हिंदू होना--मुसलमान होना ही उनका अंधा होना है। अलग होना है--पृथक होना है। हिंदू होने में ही दुश्मनी छिपी है। मुसलमान होने में दुश्मनी छिपी है। हिंदू-मुसलमान दोनों मिट जाए तो आदमियत एक हो सकती है। हिंदू-मुसलमान कभी एक नहीं हो सकते। अब मलेरिया-प्लेग एक हो जाएं तो फायदा थोड़ा होगा--और खतरा होगा। इनको मिटाने की जरूरत है। इनको एक करने की जरूरत नहीं। जिंदगी भर गांधीजी वही-वही कोशिश करते रहे। सब बीमारियां के साथ समझौते की उनकी आदत थी। किसी बीमारी को मिटाने के लिए सीधा खयाल नहीं है। वही शूद्रों के साथ, हरिजनों के साथ चला सिलसिला।

प्रभू मंदिर के द्वार 

ओशो

No comments:

Post a Comment

Popular Posts