ओम वह पूर्ण है और
यह भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही
उत्पत्ति होती है।
तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है।
ओम
शांति, शांति,
शांति।
जीवन का शाश्वत नियम है,
जहां से होता है प्रारंभ, वहीं होती है
परिणति। जो है आदि, वही है अंत। जीवन के इसी शाश्वत नियम के
अंतर्गत ईशावास्य जिस सूत्र से शुरू होता है, उसी सूत्र पर
पूर्ण होता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। सभी यात्राएं वर्तुल में हैं।
दि फर्स्ट स्टेप इज दि लास्ट आलसो। पहला कदम आखिरी कदम भी है।
जो ऐसा समझ लेते हैं कि पहला कदम आखिरी कदम भी है, वे व्यर्थ की दौड़— धूप से बच जाते हैं। जो जानते हैं, जो प्रारंभ है
वही अंत भी है, वे व्यर्थ की चिंता से बच जाते हैं। पहुंचते
हैं हम वहीं, जहां से हम चलते हैं। यात्रा का जो पहला पड़ाव
है, वही यात्रा की अंतिम मंजिल है। इसलिए बीच में हम बिलकुल
आनंद से चल सकते हैं। क्योंकि अन्यथा कोई उपाय नहीं है। हम वहां नहीं पहुंचेंगे
जहां हम नहीं थे। हम वहां पहुंचने की कितनी ही चेष्टा करें, हम
वहां नहीं पहुंचेंगे जहां हम नहीं थे। हम वहीं पहुंचेंगे, जहां
हम थे।
इसे ऐसा समझें कि हम वही हो सकते हैं, जो हम हैं ही। अन्यथा कोई
उपाय नहीं है। जो हममें छिपा है, वही प्रगट होगा। और जो
प्रगट होगा, वह वापस लुप्त हो जाएगा। बीज वृक्ष बनेगा,
वृक्ष फिर बीज बन जाते हैं। ऐसा ही जीवन का शाश्वत नियम है। इस नियम
को जो समझ लेते हैं, उनकी चिंता क्षीण हो जाती है। उनके
त्रिविध ताप शांत हो जाते हैं। कोई फिर कारण नहीं है। न दुख का, न सुख का। दुखी होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि
हम अपनी मंजिल अपने साथ लेकर चलते हैं। सुखी होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिलता, जो हमें सदा से
मिला हुआ ही नहीं है।
इसलिए इस महानियम की सूचना के लिए ही उपनिषद शुरू होता है
ईशावास्य के जिस मंत्र से, उसी मंत्र पर पूरा होता है। बीच में हमने जो यात्रा की, वे भी उसी मंत्र तक पहुंचने के अलग—अलग द्वार थे।
प्रत्येक मंत्र पुनः—पुन: उसी महासागर की स्मृति को जगाने के
लिए सूचना थी। और प्रत्येक घाट और प्रत्येक तीर्थ उसी सागर में नाव छोड़ देने के
लिए पुकार, आमंत्रण, आह्वान था। इस
सूत्र को अगर आपने खयाल रखा हो, तो हर सूत्र के प्राणों में
यही अनुस्यूत था। इसीलिए इसे पहले ही घोषणा कर दी थी और अब अंत में उसकी निष्पत्ति
की घोषणा है।
ईशावास्य उपनिषद
ओशो
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